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अहमदाबाद। ट्रेन के दो डब्बों के बीच बफर डाले हुए होते हैं, जिससे दो डब्बे आपस में टकराये नहीं और उनको लगे आघात से  एब्जॉर्ब कर लें जिससे वे गिरेंगे नहीं। ठीक इसी तरह जीवन में आते हुए संकट, समस्याएं आदि से आघात लगे, उससे टूटकर हार न मान लें तथा उन समस्याओं को एब्जॉर्व करने के लिए जिनेश्वर भगवंत द्वारा बताया गया धर्म है। इस धर्म के सहारे जीवन रूपी गाड़ी रेल ट्रेक पर बराबर चल पाएगी।
सर्वतोमुखी प्रतिभा संपन्न, आगम सूत्रों के ज्ञाता गीतार्थ गच्छाधिपति प.पू.आ.देव राजयशसूरीश्वरजी म.सा. ने उपस्थित श्रोताओं को संबोधित करते हुए फरमाया कि इस विश्व में अपनी धारणा के मुताबिक कुछ भी नहीं चलता। यह बात जब ज्ञात हो जाये तो उसे बार-बार घुटते रहना, क्योंकि घुटते रहने से ही बात अंतर में उतरती है। मन की समाधि को यदि टिकाये रखना हो तो छ: कर्म ग्रंथ के सार रूपी यह एक वाक्य याद रखना। इस विश्व में जो होता है उसे रोका नहीं जा सकता। कोई भी व्यक्तित, कोई भी तत्व, कोई भी परिबल तीर्थंकर की आत्मा हो, वासुदेव की आत्मा हो, चक्रवर्ती की आत्मा हो, सत्तावान व्यक्ति हो या सामान्य मनुष्य हो किसी की भी ताकत नहीं है कि परिवर्तन ला सके। पूज्यश्री फरमाते है कि किसी के द्वारा किये गये अच्छे या बुरे कार्य का असर किसी दूसरे व्यक्ति पर नहीं पड़ता। अर्थात् जो जैसा करता है वैसा ही भरता है। इसका अर्थ यह भी होता है कि जीवन में अपने साथ घट रही घटनाओं का जिम्मेदार अपने खुद के अलावा और कोई भी नहीं है। 
पूर्व भवों में या इस भव में अपने द्वारा जाने अंजाने में कर्मबंध हुये है, शुभ-अशुभ दोनों ही उसी प्रकार का फल हमें प्राप्त होता है। इतना समझने के पश्चात् असमाधि में रहने का कोई कारण ही नहीं बचता। पूज्यश्री कहते है कि मन को स्वाध्याय एवं शास्त्र चिंतन में लगा जो जिससे आपकी समाधि टिकी हुई रहेगी। फरमात्मा का शासन पाया है, आगम सूत्र जैसे आधार स्तंभ पाये है तो परेशान होने का कोई कारण नहीं है। अत: कोई पूछे तो कह देना परेशान आपके पास रखो हम तो शास्त्र को पाये हुए है इसलिए सेट अप हो जायेंगे। एक बात तो सत्य हीहै दुनिया में जो होता है उसमें परिवर्तन लाना किसी के बस की बात नहीं है।
इस वास्तविकता को प्रत्येक व्यक्ति भली भांति जानता है फिर भी कई लोग प्रयत्न करते है परिवर्तन लाने का किंतु समझदार व्यक्तियों की सोच यह होती है कि जिस कार्य में अत्यंत परिश्रम करने के बावजूद भी परिवर्तन नहीं आयेगा तो वहां पुरूषार्थ करना व्यर्थ होगा। वैसे भी किसी चिंतक ने खूब कहा है किसी और में परिवर्तन लाने में जितनी मेहनत और पुरूषार्थ करनी पड़ती है उससे कम मेहनत में और किसी की दु:की किये बिना हम स्वयं को बदल सकते है। अत: शक्त हो वहां तक समाधान वृत्ति ही रखना और यदि ना हो सके तो प्रभु से प्रार्थना करना जिससे कोई न कोई रास्ता जरूर निकल जायेगा। यदि फिर भी कभी दु:खी हो जाये, हताश और निराक्ष हो जाये तो समझना कि अपने में वीतरागीता की कमी है इसलिये ऐसा हो रहा है। अपने साथ जो घटना घटि होती है वह नहीं परंतु उस घटना के प्रति अपना प्रतिभाव हमें दु:खी करता है। उदाहरण स्वरूप किसी व्यक्ति ने अपने को अपशब्द अपनी भूल है। अपमान तो एक बार ही किया किंतु उसे घुटकर हम अधिक दु:खी होने का कार्य कर रहे, असमाधि के तरफ जा रहे है। पूज्यश्री ने कहा कि मिट्टी को भी कश-ताप-छेद आदि सहन करने के बाद ही घड़े में परिवर्तित हो जाये फिर उसका हम उपयोग कर सकते है। सोने को भी या उसी प्रकार से तपाने के बाद उसमें कुछ दूसरे धातुओं को मिलाने से वह गहनों में परिवर्तित होने के बाद उसका हम उपयोग कर सकते है, आनंद से इस्तेमाल कर सकते है। दु:ख आने की संभावनायें अवश्य होंगी पर उससे हताश होने के बजाय परमात्मा को शरणागत बन जाना जिससे आपको समाधान एवं समाधि सहज रुप से प्राप्त हो जाएगी।