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विवेक काटजू, पूर्व राजदूत 

विदेश सचिव हर्ष शृंगला ने 4 सितंबर को कहा कि भारत-चीन सीमा पर एक अभूतपूर्व स्थिति बन गई है। 1962 के बाद कभी भी इस तरह से हालात नहीं बिगडे़ थे। उन्होंने मौजूदा ‘तनातनी से पहले की स्थिति बहाल’ करने की मांग भी की। हालांकि, न तो उन्होंने और न ही सरकार के किस नुमाइंदे ने, न दोनों देशों की सेनाओं की साझा-वार्ता संबंधी बयानों और न ही कूटनीतिक बातचीत में यह बताया गया कि ‘हालात’ आखिर खराब क्यों हुए या स्थिति कैसे इतनी बिगड़ गई?
इस संदर्भ में मीडिया में जो भी खबरें आई हैं, वे या तो ‘ऑफ द रिकॉर्ड’ बातचीत यानी सूत्रों के हवाले से तैयार की गईं या फिर लीक सूचनाओं के आधार पर। आधिकारिक बयानों में साफगोई नहीं दिखी। जैसे, चीन के अपने समकक्ष के साथ भारतीय रक्षा मंत्री की मॉस्को-वार्ता के बाद रक्षा मंत्रालय ने जो बयान जारी किया, उसमें बीजिंग पर यह आरोप लगाया गया कि यथास्थिति में एकतरफा बदलाव की उसकी कोशिशों से मुश्किलें बढ़ गई हैं। लेकिन क्या उसका प्रयास सफल हुआ? अगर नहीं, तो फिर विदेश सचिव ने यथास्थिति बहाल करने की जो मांग की है, उसके क्या निहितार्थ हैं?
बेशक सीमा-विस्तार की चीन की गतिविधियों पर हमने कोई आधिकारिक बयान नहीं दिया है, लेकिन जो स्पष्ट है, वह यह कि बीजिंग ने अपनी हरकतों से ‘आपसी विश्वास में सेंध’ लगाई है। पूर्व विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने इन शब्दों का इस्तेमाल पाकिस्तान के खिलाफ किया था, जब उसने कारगिल युद्ध में नियंत्रण रेखा का उल्लंघन किया था। जाहिर है, चीनी अतिक्रमण बहुत बड़ा और गंभीर है। 
अब यही माना जाना चाहिए कि भारत की मौजूदा चीन-नीति काम की नहीं रही, क्योंकि इसकी बुनियाद आपसी विश्वास ही थी। यह नीति सन 1988 में राजीव गांधी ने बनाई थी और बाद की सभी सरकारें इसी पर आगे बढ़ती रहीं। इसमें शांत व स्थिर वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी), सीमा विवाद का स्थाई समाधान और कारोबार सहित हर क्षेत्र में भारत-चीन संबंधों की स्वाभाविक प्रगति की वकालत की गई है।
सवाल है कि नई नीति क्या होनी चाहिए? इसके लिए जरूरी है कि भारत और चीन में आज जो ताकत का असंतुलन है, उसे स्वीकार किया जाए। अभी चीन के साथ हमारी तुलना ठीक उसी तरह से हो सकती है, जिस तरह से पाकिस्तान की हमारे साथ। मगर इसमें एक बड़ा अंतर यह है कि पाकिस्तान जितना भी साधन जुटा ले, वह भारत से कमजोर ही रहेगा, जबकि भारत और चीन के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। बेशक भारत को आगे बढ़ने के लिए काफी कुछ करना होगा, लेकिन पिछले चार दशकों में दोनों देशों के बीच में बन आई खाई को पाटने की पर्याप्त क्षमता हमारे पास है। हां, इसके लिए राष्ट्रीय सहमति बनाना आवश्यक है, लेकिन यह किया जा सकता है और किया जाना चाहिए भी।
जब तक पाकिस्तान-भारत-चीन का मौजूदा शक्ति असंतुलन बना रहेगा, तब तक पाकिस्तान की भारत-नीति पर गौर करना कारगर हो सकता है। इस नीति के मूल में नियमित टकराव है और यह आर्थिक व वाणिज्यिक सहित किसी भी तरह के सहभागी रिश्ते को विकसित होने से रोकती है। उल्लेखनीय है कि साल 1996 में चीन के तत्कालीन राष्ट्रपति जियांग जेमिन ने पाकिस्तान को सलाह यह दी थी कि वह चीन-भारत रिश्तों का मॉडल अपनाए, जिसमें आपसी मतभेदों को दूर करते हुए अन्य क्षेत्रों में सामान्य संबंध बनाने और उसे विस्तार देने की बात कही गई है।
मगर जियांग जेमिन के विचारों को नजरंदाज किया गया, क्योंकि पाकिस्तानी सेना का स्वाभाविक तौर पर यही मानना है कि यदि कारोबारी और आर्थिक रिश्ते मजबूत बनाए गए, तो युद्ध या जंग की हालत में भारत को फायदा मिल सकता है। इसके अलावा, इस तरह के संबंध बनने से भारत जम्मू-कश्मीर पर बातचीत करने से भी बचेगा। लिहाजा, इस्लामाबाद ने अपने तीन पारंपरिक नजरिए के साथ ही आगे बढ़ने का फैसला किया- परमाणु हथियारों और उनसे जुड़ी आपूर्ति-व्यवस्था का विकास, नियंत्रण रेखा पर सैन्य संतुलन और आतंकवाद का इस्तेमाल। बीते तीन दशकों में पाकिस्तान जितना दिवालिया हुआ है, उसमें एक बड़ा योगदान उसकी इस भारत-नीति का भी है।
जाहिर है, चीन-नीति में हमें उन गलतियों से सबक लेना होगा, जो पाकिस्तान ने अपनी भारत-नीति में की हैं। संभव हो, तब भी एक बडे़ पड़ोसी देश के खिलाफ आतंकवाद या तनातनी की नीति पर आगे बढ़ना अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारने जैसा ही होगा। मगर भारत को अपनी परमाणु क्षमता इस रूप में जरूर मजबूत करनी चाहिए कि वह थल, नभ और जल, तीनों स्थितियों में मारक हो। चीन के दखल को रोकने के लिए वास्तविक नियंत्रण रेखा की सुरक्षा हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता हो। बेशक, इसके लिए पूंजीगत निवेश की जरूरत होगी, लेकिन मौजूदा आर्थिक परेशानियों के बावजूद इसको टाला नहीं जा सकता है।
चीन-नीति के अन्य पहलुओं पर भी गहन विचार की दरकार है, जो आर्थिक और वाणिज्यिक संबंधों से जुडे़ हुए हैं। असल में, आज चीन से शुरू होने वाली कुछ आपूर्ति शृंखलाओं पर भारत की निर्भरता रणनीतिक रूप से काफी शोचनीय है। फार्मास्यूटिकल्स जैसे कई उद्योगों पर यह बात लागू होती है। हमें इनका आयात कम से कम करना होगा और जैसा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ‘आत्मनिर्भर भारत’ योजना की संकल्पना है, इनका जल्द से जल्द घरेलू उत्पादन करना होगा। 
इसके अलावा, चीन की आक्रामक नीतियों से खार खाए छोटे-बड़े देशों के साथ भी भारत को अपने रिश्ते और अधिक सींचने होंगे। नई दिल्ली को अपनी पारंपरिक सोच से ऊपर उठना होगा और यह समझना होगा कि वह इतना बड़ा मुल्क है कि किसी भी ताकतवर देश से कंधे से कंधा मिला सकता है। और अंत में, चीन-पाकिस्तान की दुरभि-संधि तोड़ने के लिए पाकिस्तान की कमजोर नसों को दबाना भी अनिवार्य है।
(ये लेखक के अपने निजी विचार हैं)