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आर्थिक गतिविधियों में लैंगिक संतुलन होने से आर्थिक परिणाम भी बेहतर होते हैं. कई अध्ययनों से स्पष्ट है कि यदि कार्यबल समूह में पुरुष और महिला कर्मियों की समुचित भागीदारी हो, तो निवेश, उत्पाद, परिणाम बेहतर नजर आते हैं और असफलता की गुंजाइश कम हो जाती है। लेकिन, भारत के संदर्भ में स्थिति बिल्कुल उलट है। विश्व बैंक के मुताबिक, भारत में महिला श्रमबल भागीदारी दर अपेक्षाकृत कम है।
यहां तक कि 15 वर्ष या इससे अधिक आयु की एक तिहाई से भी कम महिलाएं कामकाजी हैं या काम की तलाश में हैं। बीते दो-तीन दशकों में महिला श्रम भागीदारी में उत्तरोत्तर गिरावट रही है। वर्ष 2005 में यह दर 26 प्रतिशत थी, जो 2019 में गिरकर 20।3 प्रतिशत पर आ गयी। महामारी ने रोजगार संकट को जहां गंभीर बना दिया है, वहीं महिलाओं के लिए रोजगार की स्थिति अधिक असहज और चिंताजनक हो गयी है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, जुलाई-सितंबर, 2020 की तिमाही में महिला श्रम बल भागीदारी 16।1 प्रतिशत पहुंच गयी। सख्त लॉकडाउन के चलते अप्रैल-जून, 2020 तिमाही में यह रिकॉर्ड न्यूनतम स्तर 15।5 प्रतिशत पर पहुंच गयी थी। भारत में जो महिलाएं रोजगार से जुड़ी हैं, उनमें ज्यादातर कम कौशल वाले कार्यों में संलग्न हैं। इनमें कृषि और कारखानों में मजदूरी करने और कुछ घरेलू सहायिकाओं के तौर पर ही रोजगार से जुड़ पाती हैं। दुर्भाग्य से इन क्षेत्रों पर महामारी की सर्वाधिक मार पड़ी है।
यही वजह है कि सितंबर, 2020 में जहां पुरुषों की बेरोजगारी 12।6 प्रतिशत रही, वहीं महिलाओं में बेरोजगारी 15।8 प्रतिशत को पार कर गयी। आश्चर्यजनक है कि वर्ष 2003-04 से 2010-11 की आर्थिकी की उच्च विकास अ?वधि में भी महिलाओं की रोजगार में भागीदारी दर की गिरावट जारी रही। यह दर्शाता है कि विकास का लाभ पुरुषों और महिलाओं को कभी समान रूप से नहीं मिल पाया।
महामारी के कारण असंगठित क्षेत्र में हुए रोजगार नुकसान से अनेक महिलाएं रोजगार की परिधि से ही बाहर हो गयी हैं। संगठित क्षेत्र में भी महिलाओं की भागीदारी की स्थिति चिंताजनक है। चीन, अमेरिका, इंडोनेशिया और बांग्लादेश आदि देशों में यह स्थिति भारत से दो से तीन गुना बेहतर है। वहीं महिला श्रम बल भागीदारी दर के वैश्विक औसत (47 प्रतिशत) से तुलना करें, तो हमारी स्थिति (20 प्रतिशत) आधी भी नहीं है। इससे स्पष्ट होता है कि भारत में महिलाओं को कामकाज की स्वतंत्रता और तरक्की के लिए अभी लंबा सफर तय करना है। 
अगर महिलाओं की आत्मनिर्भर बढ़ेगी, तो किसी संकट का सामना करने में वे स्वयं सक्षम होंगी। महिलाओं के आर्थिक सशक्तीकरण में अगर विवेकपूर्ण निवेश किया जाये, तो लैंगिक समानता, गरीबी उन्मूलन और समावेशी आर्थिक विकास का सीधा रास्ता तय किया जा सकता है।