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जयति गोयल
हम सभी बहुत सी कथाएं सुनते आए हैं कृष्ण और राम के चरित्र की। पर उनकी दी गई सीख को कितने लोग अपने जीवन में उतार पाते हैं? जो धार्मिक लोग हैं उन्हें लगता है कि वे हमेशा पूरे नियम-कायदे से पूजा-पाठ करते हैं और व्रत-उपवास रखते हैं, फिर भी उनके जीवन से दुख नहीं जाते, यहां तक कि मन में शांति तक नहीं है। वह इसलिए क्योंकि आज जितनी धर्म में रुचि बढ़ती जा रही है उसी अनुपात में पाप भी बढ़ता जा रहा है। धर्म के प्रति बढ़ती आस्था का प्रमाण है, तीर्थस्थानों में जाने वाले श्रद्धालुओं की तेजी से बढ़ती संख्या। श्रीकृष्ण की जन्मभूमि मथुरा हो या शिव का धाम, यहां पहुंचने वाले श्रद्धालुओं की संख्या बढ़ी है। बावजूद इन सबके व्यक्ति के जीवन में अशांति बनी रहती है।

पितर होंगे खुश और देवी लक्ष्मी मेहरबान

दिन भर झूठ-फरेब में उलझे रहने के बाद शाम को मंदिर में कुछ पत्र-पुष्प भगवान को समर्पित कर, उसकी ड्योढ़ी पर मत्था टेककर माफी मांग लेते हैं और संतुष्ट हो जाते हैं। हम मंदिर में बैठकर भजन-कीर्तन करते हैं और हमें लगता है कि हम भक्त हैं। बेशक इन बातों का भी मतलब है, लेकिन ऐसी आस्तिकता का क्या अर्थ कि हम ईश्वर की पूजा करें, लेकिन कर्म उनकी इच्छा के बिल्कुल विपरीत करें। संतुलित नजरिए से देखें तो कर्म के प्रति निष्ठा, आचरण की पवित्रता और पूजा-पाठ सबका अपना-अपना महत्व है। कुछ कर्मकांडों की व्यवस्था हमारे शास्त्रों में निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ही की गई है। इसलिए कर्मकांडों को कम करके नहीं आंका जा सकता, लेकिन जो कर्म हम बिना किसी स्वार्थ के करते हैं वही ईश्वर के प्रति सच्ची भक्ति है और उसी से शांति भी मिलती है।

केवल इस तरह हो सकता है आत्म साक्षात्कार 
संसार में सर्वत्र वही रमा है और उसकी भक्ति जैसे पूजा घर, मंदिर और धार्मिक आयोजनों के माध्यम से की जा सकती है। वैसे ही अपने हर कर्म के माध्यम से भी उसकी भक्ति की जा सकती है। इस प्रकार सच्ची भक्ति की अवस्था वह है, जहां हमारा प्रत्येक कार्य भगवान की पूजा बन जाता है। जब व्यक्ति का हर कर्म पूजा बन जाता है तब उसके लिए मंदिर और प्रयोगशाला में भेद नहीं रह जाता। गीता में दो मुख्य चरित्र हैं- अर्जुन और दुर्योधन। अर्जुन संवेदना, करुणा एवं ममता से भरा है, वह सीधा व सरल है। दुर्योधन लोभ, लालच, अहंकार से भरा है और भगवान के सामने होने पर भी उन्हें पहचान नहीं पाता। दुर्योधन के अंदर तमस ही तमस है जबकि अर्जुन के अंदर प्रकाश ही प्रकाश। इसलिए भगवान श्री कृष्ण ने गीता अर्जुन को सुनाई।

अगर आप का मन निर्मल नहीं है तो वहां राम नहीं रह सकते, न ही कृष्ण रह सकते हैं। कबीर कहते हैं, जिसका मन निर्मल है, उसके लिए सभी स्थान बनारस की पावन भूमि की तरह पवित्र है। उसके लिए सभी जल गंगा की तरह निर्मल है। अगर आपका मन निर्मल है तो फिर आपको तीरथ यात्रा करने, गंगा में डुबकी लगाने या फिर मंदिर जाकर राम को ढूंढ़ने की जरूरत नहीं है। अगर आपका मन निर्मल नहीं है और आप मन को निर्मल बनाना छोड़कर केवल तीर्थ यात्रा करते रहेंगे, गंगा में डुबकी लगाते रहेंगे, मंदिरों में जाकर राम को ढूंढ़ते रहेंगे तो फिर उसका कुछ लाभ नहीं होगा।