अहमदाबाद। सभी माता-पिता अपने संतानों के लिए कुछ न कुछ ऐसा यादगार बनाकर या देकर जाते हंै जिसको देखकर संतान का मन प्रसन्न हो। कोई आलिशान मकान बनाते हैं, कोई अस्पताल बनाते हंै, कोई मंदिर बनाते है आदि। ऐसे ही एक पिता ने अपने पुत्र के हित की चिंता करते हुए उसकी आत्मा की चिंता करते हुए उसके लिये एक सूत्र की रचना की। एक ऐसा सूत्र जो आज भी श्रमण-श्रमणी भगवंत उपयोग करते हैं, उसे याद करते हैं। यह सूत्र दशवैकालिक सूत्र है।
पूज्य शय्यंभव सू.म.सा. ने अपने संसारी पुत्र मनक का आयुष्य अल्प है ऐसा जानकर उसे श्रमण जीवन का सार समझाने हेतु इस महान सूत्र की रचना की। अनेक प्राचीन तीर्थोंद्धारक गीतार्थ गच्छाधिपति पं.पू.आ.देव राजयश सूरीश्वरजी म.सा. फरमाते हैं कि जैसे उत्तराध्ययन सूत्र वैराग्य की रूपण है, वैसे ही श्री दशवैकालिक सूत्र आत्मा को महान बनाने तथा आत्मोत्थान करानेवाला श्रेष्ठ सूत्र है। इसी सूत्र के आठवें अध्ययन की यह गाथा है-
जरा जाव न पीईइ, वाही जाव न वड्ढई।
जाविंदिआ न द्ययंति, ताव धम्मं समयारे।।
अर्थात् जब तक जरा यानि वृद्धावस्था से पीडि़त न हुए हो, जब तक व्याधि बढ़ती ना हो, जब तक इंद्रियों का बल क्षीण न हुआ हो तब तक धर्म में प्रयत्न कर लेना चाहिए। एक उद्योगपति में अपना बिजनेस मुंबई में व्याप्त किया। फिर से लगा कि केवल मुंबई तक नहीं मुझे मेरा बिजनेस समस्त भारत में फैलाना चाहिए। समस्त भारत में अपना बिजनेस फैलाते-फैलाते उन्हें ऐसी इच्छा हुई कि अब विदेश में भी फैलाना चाहिए। विदेश में अपना बिजनेस फैलाते-फैलाते एक दिन उसे पूज्य गुरूदेव आये। आशीर्वाद लेने आये और बोले-क्या करूं गुरूदेव। टेंशन बढ़ता जा रहा है। डेवलेपमेंट इतना है कि समय कम पड़ रहा है। गुरूदेव ने उसे भूतकाल की स्मृति करवाते हुये कहा कि बेटा। पहले तो तू मेरे पास तीन-तीन सामयिक करता था और बिजनेस भी संभाल लेता था। अभी क्या हुआ? सामयिक करने कब आयेगा? उद्योगपति भाई ने कहा, साहेबजी। अभी कमाने का समय है, धर्म बाद में करेंगे। पूज्य श्री कहते है कि ऐसे लोगों के लिए दशवैकालिक सूत्र लाल बत्ती बताता है जरा जाव न पीडेइ अर्थात् जब तक बुढ़ापा नहीं आये धर्माराधना कर लेनी चाहिए। क्योंकि जीवन का कोई भरोसा नहीं है।
इसी सिद्धांत को जीवन में जीने वाले महापुरूष महायोगी व्याख्यान वाचस्पति प.पू.दादा गुरूदेव लब्धिसूरीश्वरजी तरह विचरते थे। अपूर्व उल्लास से सुंदर शासन प्रभावना के अनेक कार्य किये। ऐसे पू. दादा गुरूदेव के गुणानुवाद करते पूज्य श्री ने उन्हीं की बनाई हुई सज्झाय एक काव्य कृति पर विवेचन फरमाया। उस काव्य की पंक्तियां थी थोड़ी तेरी जिंदगी है, क्यों तू घूमाता है अर्थात् जीवन का कोई भरोसा नहीं है। जैसे बगीचे में घास पे ओस की बूंदों की चादर होती है तब का नजारा इतना सुंदर और सुहाना लगता है कि सिर्फ उसे देखते ही रहने की इच्छा होती है। लेकिन जैसे ही उन ओस बूंदों पर सूर्य की किरणे पड़ती है तो उनके अस्तित्व का लोप हो जाना है। बस इन ओस की बूंदों की तरह हमारा जीवन भी क्षणिक ही है। बिल्कुल प्रमाद किये बिना धर्माराधना में लग जायें। पूज्य गुरूदेव फरमाते है कि जैसे बच्चों को, स्कूल का होमवर्क कराने में, परीक्षा की तैयारी कराने में, बिजनेस डीलिंग आदि से सावधानी है वैसी सावधानी अपने प्रतिपल घटते जा रहे आयुष्य के लिए नहीं है। यदि वैसी सावधानी हम में आ जाये तो अवश्यमेव शीघ्र ही परमात्मा पद को प्राप्त करेंगे।
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