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अहमदाबाद। एक ग्राहक दुकान पर जाकर अपनी मनपसंद चीज का भाव पूछा रहा था लेकिन दुकानवाले ने थोड़ी रक-झक की तो वह ग्राहक चला गया। दूसरे दिन फिर यही हुआ लेकिन दुकानकार ने बिलकुल रक-झक किये बिना भाव कम करके ग्राहक को संतोष हो उस भाव में माल बेच दिया। ग्राहक ने भी माल तो खरीद लिया, लेकिन उसके मन में प्रश्न था कि दुकानकार ने ऐसा क्यों किया होगा? उससे रहा नहीं गया और दुकानदार को पूछा कि आज आपने एक ही बार में भाव कम कर दिया, ऐसा क्यों? दुकानदार ने कहा कि आपको पता नहीं हैं मुझे यह दुकान खाली करना है, इसलिये मेरा सब माल बेचकर दूसरी जगह जाना है। 
सर्वतोमुखी प्रतिभा संपन्न, गीतार्थ गच्छाधिपति प.पू.आ.देव राजयशसूरीश्वरजी म.सा.उपस्थित धर्मानुरागी आराधकों को संबोधित करते हुए फरमाते हंै कि अभी हमारा भी दुकान खाली करने का समय आ चुका है। इसलिये सब सावधान हो जाएं। पूज्य गुरुदेव ने सबको अधिक से अधिक आराधना करने की प्रेरणा करते हुए फरमाया कि जितना शक्य हो, संयोग हो, शक्ति हो तो औचित्य को छोड़े बिना जितनी हो सके उतनी धर्म आराधना, साधना कर लो। दशवैकालिक सूत्र कहता है पुण्यशाली आत्मा आज आपकी जो शक्ति है वह पांच वर्ष के बाद भी वैसी ही आत्मा आज आपकी जो शक्ति है वह पांच वर्ष के बाद भी वैसी ही रहेगी वह किसे पता? अत: जितना हो सके उतना अभी कर लो। आजकल के बढ़ते भौतिकवाद के साथ-साथ छोटे-छोटे बच्चों में धर्मभावना तथा धर्म आराधना करने की शक्ति भी इतनी ही बढ़ती जा रही है कि सुनकर आश्चर्य होता है। बारह साल, चौदह साल के बच्चे सिद्धि तप, मासक्षमण, जैसी दीर्घ तपश्चर्या हंसते-खेलते आनंद के साथ कर लेते है। इनको देखकर प्रश्न हो जाता है कि वर्तमान युग के तत्वहीन खाद्य पदार्थ खाने पर भी तपश्चर्या कैसे कर पाते है? पूज्यश्री फरमाते है कि तप केवल पौष्टिक आहार लेने से ही नहीं बल्कि उससे भी अधिक मनोबल से यानि मन की अनुपम शक्ति से यह संभव हो पाता है। यह है शरीर की शक्ति का सदुपयोग कर आराधना करने का मार्ग।अब अपने कषायों को अल्प करके आत्मिक आराधना करनी है। इसके लिए सर्वप्रथम गुणदृष्टि बनाना आवश्यक होगा। लब्धि गुणानुवाद सुवास लोगों में महकती रहे और गुणदृष्टि बनाने के लिए सर्वप्रथम निंदा का त्याग करना होगा। निंदा करने में यदि आनंद आये तो समझना कि नरक का द्वार अपना इंतजार ही कर रहा है। निंदा करने का मन हो जाये तो स्वयं के दोषों की, दुर्गुणों की निंदा करना जिससे आत्मोत्थान होगा। यदि पर की निंदा करोगे तो आत्मा का पतन होने से कोई नहीं रोक सकेगा। यह एक ऐसा पाप है ना कि इसे प्रारंभकरते समय सायद हमारा ध्यान भी नहीं रहा हो लेकिन इसे बंद करना कठिन हो जाता है। 
पूज्यश्री फरमाते है कि यदि जीवन में किसी चीन का सब्ट्रैक्शन करना हो तो निंदा और दोषों का करना, गुणों को एड्रेस करते जाना और उससे संतोष ना हो तो मल्टीप्लाई करते जाना तो आपके जीवन का सौंदर्य ही कुछ अलग होगा।दूसरों ने क्या किया, उनका कैसा वर्तन रहा, उनके शब्द प्रयोग कैसे रहे यह सब देखने में इतना रस होता है, आनंद आता है कि ना पूछो बात। इसलिए शास्त्रकार भगवंत फरमाते है कि प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं को संभालने की जिम्मेदारी भी है और कत्र्तव्य भी है दूसरों को संभालने की, उनका ध्यान रखने की जिम्मेदारी या कत्र्तव्य अपना नहीं है। दूसरों की निंदा करने से अपनी जीभ खराब होती है जबकि दूसरों के गुणगान से अपनी जीभ ही नहीं आत्मा भी निर्मल और विशुद्ध बनती है। निंदा करने से अपने द्वारा किये गये तप-जप आराधना व्यर्थ हो जाते है अर्थात् शून्य के समान हो जाते है। अत: पूज्यश्री ने सबको पुन: एक रिकॉर्ड बुक बनाने की प्रेरणी दी जिसमें प्रतिदिन जिनशासन में हुए एक विशिष्ट कार्य की तथा एक व्यक्ति का सुद्गुण लिखकर उसे पढ़ा करें। इस तरह आत्मिक आराधना में प्रगति कर शीघ्र आत्मोत्थान करें यही कामना।