आलोक जोशी
स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मनाने की शुरुआत करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले से जो कहा, उसमें कम शब्दों में एक बड़ी बात थी, 'ईज ऑफ डूइंग बिजनेसÓ यानी व्यापार करना आसान बनाना। यह सरकार कई साल से 'ईज ऑफ डूइंग बिजनेसÓ पर काम कर रही है, और उन्होंने कहा भी कि देश के व्यापार और उद्योग आज इस बदलाव को महसूस कर रहे हैं।
लेकिन इसके बाद उन्होंने कहा कि इस तरह के सुधार सिर्फ सरकार तक सीमित न रहे, बल्कि ग्राम पंचायत और नगर निगमों, नगरपालिकाओं तक पहुंचे, इस पर देश की हर व्यवस्था को मिलकर काम करना होगा। प्रधानमंत्री की यह बात इसलिए ध्यान देने लायक है, क्योंकि इसमें यह अंतर्निहित है कि सरकार ने भले ही 'ईज ऑफ डूइंग बिजनेसÓ कर दिया हो और बड़े उद्योगपतियों की जिंदगी आसान हो गई हो, लेकिन छोटे व्यापारियों व कारोबारियों को आज भी बहुत सारी रुकावटें झेलनी पड़ रही हैं। इनमें भी सबसे ज्यादा बाधाएं उन लोगों के सामने हैं, जो नया काम शुरू करना चाहते हैं। पिछले साल लॉकडाउन लगने के कुछ ही समय बाद ऑल इंडिया मैन्युफैक्चर्स ऑर्गेनाइजेशन ने नौ और उद्योग संगठनों के साथ मिलकर एक देशव्यापी सर्वे किया था। इससे पता चला कि देश में एक तिहाई से ज्यादा छोटे और मध्यम उद्योग बंद होने के कगार पर हैं। व्यापारियों से बात कीजिए, तो उन सबका कहना है कि कोरोना के पहले झटके ने उनकी कमर तोड़ दी थी, जिसके बाद वे किसी तरह सब कुछ समेटकर अपने नुकसान का हिसाब जोड़ ही रहे थे कि दूसरी लहर आ गई। हालांकि, इन दो मुसीबतों के बाद भी आशा का दामन न छोडऩे वाले लोग हैं और उनका कहना है कि कम-से-कम अब वे हर हाल के लिए तैयार तो हैं, क्योंकि उनको लगता है कि कभी भी फिर ऐसी हालत आ सकती है।
मैनेजमेंट के जानकारों का भी कहना है कि छोटे हों या बड़े, सभी व्यापारी अब यह सोचकर तैयारी कर रहे हैं कि कोरोना का अगला झटका आ गया, तो काम कैसे जारी रखा जाए। और ऐसा करने में उनके सामने जो दो सबसे बड़ी रुकावटें आती हैं, उनमें से एक है, मांग की कमी, और दूसरा, पैसे की कमी। सोशल नेटवर्किंग प्लेटफॉर्म 'फेसबुकÓ ने पिछले साल ओईसीडी और विश्व बैंक के साथ मिलकर भारत में छोटे और मंझोले कारोबारियों के बीच एक सर्वे किया था, जिसमें एक तिहाई लोगों ने आशंका जताई थी कि पैसे की व्यवस्था उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती साबित होने वाली है। पिछले ही हफ्ते फेसबुक ने ऐसे व्यापारियों को पांच से पचास लाख रुपये तक का लोन दिलवाने की मुहिम भी शुरू की है। हालांकि, इसका फायदा उन्हीं व्यापारियों को होगा, जो फेसबुक या उसके दूसरे एप इंस्टाग्राम, वाट्सएप पर छह महीने तक विज्ञापन दे चुके हों।
सवाल यह है कि जिस तरह फेसबुक जैसी बड़ी कंपनी छोटे व्यापारियों के लिए सहारा बनने की सोचती है, क्या देश में आने वाली दूसरी बड़ी कंपनियां भी ऐसा ही कर सकती हैं? यह सवाल इसलिए भी उठता है, क्योंकि पुराने वक्त से यह देखा गया है कि जब कहीं कोई बड़ा कारखाना लगता था, तो उसके आसपास बहुत से छोटे कारखाने, दुकानें, होटल, रेस्तरां, यानी करीब-करीब पूरा बाजार लग जाता था। ज्यादा बड़े उद्योग तो अपने आसपास पूरे-पूरे शहर ही बसा लेते थे। और, इसके साथ यह सवाल भी उठता है कि देश में कितने ऐसे बड़े उद्योग आ रहे हैं, जिनसे यह उम्मीद की जा सके?
यहां चीन की एक खबर पर नजर डालनी चाहिए। चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने पिछले हफ्ते अपनी पार्टी के शीर्ष नेताओं से कहा कि सरकार को ऐसी व्यवस्था बनानी होगी, जिससे देश में संपत्ति का फिर से बंटवारा किया जा सके और सामाजिक न्याय सुनिश्चित हो। चीनी समाचार एजेंसी के अनुसार, उन्होंने कहा कि बहुत ऊंची कमाई पर नियंत्रण लगाना और बहुत पैसा कमाने वाले लोगों व कंपनियों को प्रेरित करना होगा कि वे समाज को ज्यादा से ज्यादा वापस दें। इसका गरीबों को कितना फायदा होगा, यह अलग बहस का मुद्दा है, पर इतना तय है कि इसका अर्थ अमीरों पर ज्यादा टैक्स हो सकता है। ऐसा होने के बाद या ऐसा होने के डर से बहुत सी बड़ी कंपनियां फिर चीन से भागने लगेंगी।
लेकिन जो कंपनियां चीन से भागेंगी, उनमें से कितनी भारत आएंगी? पिछले साल इसी महीने दावा किया गया था कि दो दर्जन बड़ी कंपनियां चीन छोड़कर भारत आ रही हैं और वे यहां डेढ़ अरब डॉलर का निवेश करेंगी। ये वे कंपनियां थीं, जो पहले ही चीन से निकलने का मन बना चुकी थीं और तब तक यह चिंता सामने आ चुकी थी कि उन्हें अपनी तरफ खींचने के मामले में भारत वियतनाम, कंबोडिया, म्यांमार, बांग्लादेश और थाइलैंड जैसे देशों से पिछड़ चुका था। तब भी सरकार को उम्मीद थी कि जब ये कंपनियां आएंगी, तो 10 लाख लोगों को रोजगार मिलेगा और करीब 150 अरब डॉलर का उत्पादन भी होगा।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, साल 2020-21 में भारत में कुल 81.72 अरब डॉलर का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश आया है। यह रकम इसके पिछले साल से 10 प्रतिशत ज्यादा है। लेकिन एक अमेरिकी रिसर्च ग्रुप का कहना है कि अगर भारत को पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनना है, तो उसे हर साल कम से कम 100 अरब डॉलर का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश लाना होगा। दूसरी बात, जो पैसा आ रहा है, उसमें से काफी कुछ वेंचर कैपिटल या प्राइवेट इक्विटी के रास्ते भी आ रहा है। इनमें से ज्यादातर टेक्नोलॉजी कंपनियों में जा रहा है, जहां जमीन पर बहुत कुछ नहीं होता। इसीलिए, इतना निवेश आने के बाद भी देश में ग्रॉस कैपिटल फॉर्मेशन या ऐसे कारोबार में निवेश, जिनमें जमीन पर आर्थिक गतिविधि हो, फैक्टरी लगे, बिल्डिंग बने, बहुत से लोगों को रोजगार मिले और जीडीपी में बढ़ोतरी हो, कम हो रहा है। सन 2011 से 21 के बीच ऐसा निवेश जीडीपी का 34.3 प्रतिशत रहा, लेकिन 2020-21 में यह सिर्फ 27.1 फीसदी रह गया है। ऐसे में, यह सवाल उठना लाजिमी है कि आंकड़ों में, सरकारी फाइलों में विदेशी निवेश कितना भी बढ़ता दिखे, क्या वह आम आदमी को रोजगार देने में मदद करेगा? और सरकार ऐसा क्या करेगी कि इस सवाल का जवाब हां में ही मिले? तभी आजादी का अमृत महोत्सव सबके लिए अमृतवर्षा का सबब बन पाएगा।
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