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अभिषेक कुमार सिंह
भारत के पड़ोसी देश भूटान ने कोरोना टीकाकरण अभियान में रिकॉर्ड बनाया है। इस देश ने महज सात दिनों में अपनी नब्बे फीसदी कामकाजी आबादी को कोरोना टीके की दूसरी खुराक दे दी। यह करिश्मा इसलिए हो सका क्योंकि भूटान को विदेशों से लाखों टीके मुफ्त में मिल गए थे, खासतौर पर भारत से। आठ लाख की आबादी वाले इस मुल्क को मुफ्त टीके मिलना एक ओर कुछ देशों की दानशीलता और तेज टीकाकरण को लेकर सरकार की कटिबद्धता की मिसाल है, तो दूसरी ओर यह मुद्दा उस पेटेंट प्रक्रिया से भी जुड़ता है जिसमें दवाओं और टीकों का निर्माण बेहद कम लागत में हो पाता है। अगर आज पूछा जाए कि कई विकासशील देश अपनी जरूरत के मुताबिक कोरोना के टीके क्यों नहीं बना पा रहे हैं, तो इसकी जड़ पेटेंट से जुड़ी समस्या में दिखाई देती है, जिसे लेकर हाल में विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) की बैठक में नतीजा नहीं निकल सका।
इस बैठक का एजेंडा था कि क्या कोविड टीके के उत्पादन को पेटेंट की पाबंदियों से मुक्त किया जा सकता है। पर जेनेवा में डब्ल्यूटीओ के मुख्यालय में पिछले महीने के अंत में हुई बैठक में भारत सहित कई सहयोगी देशों की कोशिशें रंग नहीं ला पाईं। इसका मतलब यह हुआ कि विकासशील देश खुद ही टीके बना लें, फिलहाल ऐसा संभव नहीं है। जाहिर है, इसका असर उन गरीब और पिछड़े देशों पर पड़ रहा है जिनके पास न तो टीके बनाने की क्षमता और योग्यता है और जिन्हें टीके दान में देने की मुहिम से भारत व अन्य देशों ने अब हाथ खींच लिए हैं।
दवाओं और टीकों, खासतौर पर मौजूदा संदर्भ में कोविड टीके के पेटेंट का मसला अब काफी पेचीदा हो गया है। महामारी की पहली लहर से उबरने के बाद माहौल के पहले जैसा सामान्य होने की उम्मीद बनी ही थी, तभी दूसरी लहर कहर बन कर टूटी और उसने सारे प्रबंधों को बौना साबित कर दिया। ऐसे में ज्यादा उम्मीदें इस पर टिक गईं कि ज्यादा से ज्यादा कंपनियां देश में ही कोरोना टीके बनाएं। हालांकि इसमें दो बड़ी अड़चनें हैं। पहली दिक्कत फार्मा कंपनियों की विशेषज्ञता और कच्चे माल की उपलब्धता है और दूसरी मुश्किल पेटेंट कानूनों की है। कच्चे माल और विशेषज्ञता संबंधी दिक्कतों का समाधान किसी तरह कर भी लिया जाए, तब भी पेटेंट की अड़चन हमें या दूसरे विकासशील देशों को जरूरत के हिसाब से बड़े पैमाने पर टीकों के निर्माण की छूट नहीं देती है।
सवाल है कि पेटेंट का मसला इतना पेचीदा क्यों है, तो इसका एक सीधा-सा जवाब यह है कि टीके बना रही दुनिया की प्रमुख फार्मा कंपनियों के लिए यह कमाई का एक बेहतरीन मौका है। कोई भी बड़ी फार्मा कंपनी इस वक्त ऐसी छूटें प्रदान करने के पक्ष में नहीं है जिससे उसके व्यापार को घाटा हो या लाभ में कहीं कोई कमी आए। विकसित देश पेटेंट (बौद्धिक संपदा) के जरिए बेशुमार कमाई वाले फार्मा उद्योग पर से अपनी पकड़ छोडऩा नहीं चाहते। चूंकि फार्मा कंपनियों का अपने देशों की सरकारों पर भारी दबाव है, लिहाजा सरकारें उन्हें पेटेंट पर झुकने को नहीं कह रही हैं। इससे जो मुश्किलें पैदा हो रही है, उनके उदाहरण भारत में ही मिल रहे हैं।
दूसरी लहर के प्रकोप में खुद हमारे देश को ही विदेशी टीकों का मोहताज होना पड़ गया। रूसी टीके स्पूतनिक के निर्यात और देश में ही उसके निर्माण की कोशिशों के अलावा फाइजर, मॉडर्ना और अब जॉनसन एंड जॉनसन की राह देखनी पड़ रही है। लेकिन ध्यान रहे कि इन कंपनियों के पास पहले से ही दूसरे देशों के बड़े ऑर्डर पड़े हैं। ऐसे में, इनसे टीका मिलने में लंबा इंतजार करना पड़ सकता है। ऐसी दुविधा पैदा होने पर सरकार के स्तर पर बीच में कई प्रयास किए गए। जैसे, कुछ समय पहले अमेरिका से पेटेंट कानूनों में ढील देने और टीके का कच्चा माल मिलने में आ रही बाधाओं को दूर करने का निवेदन किया गया। इनमें से कुछ प्रयासों ने असर भी दिखाया। जैसे अमेरिका के बाद यूरोपीय संघ (ईयू) ने भी टीके पर बौद्धिक संपदा अधिकार से जुड़ी सुरक्षा छोडऩे को सहमति दर्शाई। लेकिन जब बात डब्ल्यूटीओ की मेज तक पहुंची, तो आश्वासन धरे रह गए।
यह बात रेखांकित करने वाली है कि टीकाकरण अभियान ने निश्चय ही महामारी से थोड़ी-बहुत राहत दिलाने में दुनिया की मदद की है। हालांकि इसमें गरीब-अमीर का फर्क साफ दिखाई दे रहा है। कुछ ही दिन पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने एक आंकड़ा जारी किया, जिसके मुताबिक दुनिया में गरीब देशों में पांच सौ लोगों में से सिर्फ एक व्यक्ति को टीका लगा है, जबकि अमीर देशों में हर चार में से एक व्यक्ति का टीकाकरण हो चुका है। संभवत: यही वजह है कि फिलहाल कोरोना से तीस फीसद मौतें गरीब और भारत जैसे मध्यम आय वाले विकासशील देशों में हो रही हैं। साफ है कि इस वक्त कोरोना टीके ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाना सबसे जरूरी उपाय है।
टीके के पेटेंट का मसला पिछले साल 2020 में तब उठा था, जब विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के मंच पर भारत और दक्षिण अफ्रीका ने सबसे पहले यह प्रस्ताव रखा था कि अगर सभी देश कोरोना टीकों पर अपने पेटेंट का अधिकार छोड़ दें, तो इससे दुनिया की तमाम फार्मा कंपनियों को टीके बनाने की आजादी मिल जाएगी और जरूरत के मुताबिक टीके तेजी से बनाए जा सकेंगे। कहा गया कि दुनिया भर की दवा और टीका उत्पादक कंपनियां किसी तरह की मुकदमेबाजी की आशंका के बगैर टीका बनाना सीख सकेंगी।
स्वाभाविक रूप से टीके के उत्पादन और उसकी उपलब्धता पर इसका सकारात्मक असर होगा। भारत ने तर्क दिया था कि कोरोना टीकों को पेटेंट मुक्त करने का फायदा यह होगा कि छोटे और आर्थिक तौर पर कमजोर देश भी कम कीमत पर टीका खरीद सकेंगे। हालांकि भारत की इस पहल को यूरोप, अमेरिका के साथ-साथ चीन ने भी मंजूर नहीं किया, लेकिन सत्तावन देशों ने इस प्रस्ताव के लिए हामी भरी थी।
कोराना टीके को पेटेंट-मुक्त कराने की जरूरत खासतौर से इसलिए है क्योंकि ज्यादातर दवा कंपनियां जल्दबाजी में बनाए गए टीकों के शोध और निर्माण पर हुए खर्च की जल्द से जल्द भरपाई करना चाहती हैं। इस पर समस्या यह है कि पेटेंट कानूनों की वजह से अन्य कंपनियां ये टीके नहीं बना सकती हैं जो मानवता के हित में ऐसा करना चाहती हैं और जिनके पास इन्हें बनाने लायक बुनियादी ढांचा भी है। चंद कंपनियों के पेटेंट एकाधिकार के चलते टीकों के दाम भी काफी ज्यादा हैं। भारत में भी कुछ कंपनियों ने अपने टीके की कीमत निर्धारित करने की कोशिश की है। लेकिन इसका सबसे ज्यादा नुकसान गरीब देशों और कम आय वाली जनता पर हुआ है। एक तरफ अमेरिका-कनाडा जैसे अमीर देश हैं, जिन्होंने अपनी आबादी की तुलना में ज्यादा टीके पहले ही खरीद लिए, तो दूसरी ओर दर्जनों गरीब देश हैं जिनकी आर्थिक क्षमता अपने सभी नागरिकों के लिए टीके खरीद पाने की नहीं है। भारत जैसी ज्यादा आबादी वाले देशों के सामने भी मुश्किल यह है कि उसे भारी संख्या में टीके चाहिए, लेकिन पेटेंट कानूनों की वजह से सिर्फ दो देसी कंपनियां इतनी संख्या में टीके बना सकें- यह संभव नहीं है। इन्हीं समस्याओं के मद्देनजर भारत सरकार ने विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) तक से अपील की थी कि वह कोरोना की टीके को बौद्धिक संपदा अधिकार (पेटेंट कानून) की श्रेणी से बाहर निकाले ताकि इनकी कीमतें कम की जा सकें।