जनरल वीपी मलिक, पूर्व सेनाध्यक्ष
इस लड़ाई को हमेशा जीतेगा हिन्दुस्तान। फौज का काम सिर्फ जीतना होता है। देश का भी यही मिशन होता है। इस तरीके के हालात पिछले कई बरसों से सीमा पर रहे हैं और विवादों को आपसी बातचीत से ही सुलझाया जाता रहा है। यही हमारी सरकार की नीति रही है। फौज ने इसी का अनुसरण किया है। मगर इस बार दो चीजें अलग हुई हैं। पहली, चीन के सैनिकों ने बड़ी तादाद में वास्तविक नियंत्रण रेखा को पार करके हमारे क्षेत्र में कैंप किया, और दूसरी बात, जब बातचीत करने की कोशिश की गई, तो उन्होंने जवाब विपरीत तरीके से दिया। जब कोर कमांडर स्तर पर मान लिया गया कि हम अपनी-अपनी जगह पर चले जाएंगे, तो उसके बाद भी यह घटना बताती है कि वे तैयारी करके आए थे और यह सोचकर आए थे कि कोई उनकी तरफ आया, तो वे आक्रामक जवाब देंगे।
हमें चीन की नीयत को समझना चाहिए। अगर नीयत खराब हो, तो हर कार्रवाई को शक की नजर से देखा जाना चाहिए। मेरा अपना अनुभव चीन के साथ यही रहा है कि उसकी कथनी और करनी में बहुत फर्क है। हमें इसी आधार पर अपनी कार्रवाई करनी चाहिए। साल 2013 के बाद से चूंकि तमाम घटनाओं को बातों से सुलझा लिया गया, इसलिए यह नीति बन गई। यह ध्यान ही नहीं दिया गया कि ऐसी घटनाएं बार-बार क्यों हो रही हैं? जाहिर है, हमें अपनी नीति की समीक्षा करनी चाहिए थी, जिसका खामियाजा हमें गलवान में भुगतना पड़ा है।
अभी बॉडी आर्मर भेजे जा रहे हैं, लेकिन यह विकल्प नहीं है। फौज का काम नहीं है कि वह इसके साथ लड़ाई लड़े। फौज हथियारों के साथ काम करती है। हम पुलिस वाले नहीं होते हैं और न ही इस तरह की घटनाओं में हमें गुत्थमगुत्था की कोशिश करनी चाहिए। यह कोई आंतरिक सुरक्षा का मामला नहीं है। हमें दूसरी फौज से टकराना होता है। इसलिए बॉडी आर्मर की परंपरा अब जारी नहीं रहनी चाहिए। इसकी बजाय फौज को हथियार की इजाजत होनी चाहिए। आपातकालीन स्थितियों में उसे सेल्फ डिफेंस में काम करने की भी छूट मिलनी चाहिए।
सीमा पर मौजूद हमारी फौज के पास पर्याप्त हथियार हैं। यह आरोप गलत है कि वहां फौज निहत्थी थी। दरअसल, विश्वास बहाली को लेकर सन 1997 में हमने चीन से एक समझौता किया था, जिसका आर्टिकल-6 कहता है कि दो किलोमीटर के भीतर यदि हम आपस में भिड़ते हैं, तो गोली नहीं चलाएंगे।
वर्ष 1993 से अब तक वास्तविक नियंत्रण रेखा पर हालात सुधारने के लिए पांच समझौते हुए हैं। उनकी समीक्षा की बात मैं काफी अरसे से कर रहा हूं। साल 1997 के जिस समझौते का जिक्र मैंने किया है, उस वक्त मैं वाइस चीफ था। तब भी मैंने यह कहा था कि अगर वास्तविक नियंत्रण रेखा को नक्शे पर नहीं खींचा जाता है, जैसा कि आर्टिकल-10 में लिखा हुआ है, तो फिर बाकी आर्टिकल को अमल में नहीं लाया जा सकता। एलएसी पर सहमति जब तक नहीं बनेगी, हालात और बिगड़ सकते हैं।
दिक्कत यह भी है कि राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मुद्दे पर राजनेता खुलेआम एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप करते रहते हैं। सार्वजनिक तौर पर इससे बचना चाहिए। हमारे पास राष्ट्रीय सूचना रणनीति भी होनी चाहिए। इससे हम हालात को लेकर सही तस्वीर देश के सामने रख सकते हैं। गलवान की घटना में इसका ठीक तरीके से इस्तेमाल नहीं किया गया, जबकि इसका पूर्व का अनुभव सुखद है। जैसे, कारगिल जंग के समय विदेश मंत्रालय के अफसर और थल सेना, वायु सेना व नौसेना के अधिकारी संयुक्त प्रेस वार्ता करते थे। वे रोजाना नक्शे आदि बताकर मीडिया व देश की जिज्ञासाओं को शांत करते थे। इस रणनीति को लेकर सहयोगात्मक नीति बननी चाहिए। पता नहीं, इस बार हमने इसका इस्तेमाल क्यों नहीं किया।
समन्वय कितना कारगर होता है, यह कारगिल में हमने खूब देखा है। जैसे, कारगिल से पहले हमारे पास एक कोर था, जिसकी जिम्मेदारी श्रीनगर से पूरे चीन सीमा और पाकिस्तान सीमा पर थी। कारगिल का सबक लेकर हमने लड़ाई खत्म होते ही 14कोर बनाया, और वह तब से लेह में है और उसकी प्राथमिक जिम्मेदारी चीनी बॉर्डर है। हालांकि, जब तक पर्याप्त संसाधन नहीं मिलेंगे, पूरी तैयारी मुश्किल है। जैसे, साल 2000 में हमने सड़क की जरूरत महसूस की थी, मगर साल 2012 तक कुछ नहीं कर पाए। माउंटेन कोर के बारे में भी यही सच है। जवानों को खड़ा करना ही काफी नहीं है, उनके पास हथियार भी होने चाहिए। खुफिया सूचना को लेकर भी काम करना होगा।
हमारे एक रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस दूर की सोच रहे थे और उन्होंने यह बात अलग ढंग से कही थी (कि चीन हमारा दुश्मन नंबर एक है)। उनकी भाषा दूसरी थी, लेकिन उस वक्त भी हम कह रहे थे कि चीन हमारी दीर्घकालिक चुनौती है और पाकिस्तान तात्कालिक चुनौती। लेकिन तब कई वरिष्ठ लोगों को उनकी बात पसंद नहीं आई थी, और उन्हें इसके लिए सुनना भी पड़ा, लेकिन उनकी सोच दूर की थी। इसी बात को अगर वह कहते कि चीन हमारी दीर्घकालिक चुनौती है, तो शायद कोई ऐतराज नहीं करता। आज मैं समझता हूं कि 15 जून की घटना एक टर्निंग प्वॉइंट है। अब हमें अपनी नीतियों में काफी बदलाव करने पड़ेंगे, न सिर्फ फौज के लिहाज से, बल्कि आर्थिक, राजनीतिक दृष्टि से भी रणनीतिक बदलाव की जरूरत है। हममें पहले से अधिक काबिलियत है और अगर ऐसी घटनाएं होती हैं, तो हम मुकाबला कर सकते हैं। हमारी फौज में पर्वतीय युद्ध का जो कौशल है, जो दृढ़ता है, वह चीनी बलों से बेहतर है। हमें मजबूर किया जाता है, तो हम लड़ेंगे।
हमें अपने अन्य पड़ोसी देशों को साथ लेकर रणनीति बनाकर चलना चाहिए। वाकई लोकतंत्र में निर्णय लेना मुश्किल होता है। हमारे यहां लोकतंत्र भी है और शोर मचाने वाला लोकतंत्र है। किसी भी सरकार को लें, जब तक हमारी राजनीतिक पार्टियों में यह सोच नहीं आएगी कि जो भी मुद्दा राष्ट्रीय सुरक्षा या हित का है, उसे मिलकर सुलझाना है और आगे ले जाना है, तब तक ऐसी मुश्किलें चलती रहेंगी। हमें राष्ट्रीय हित में मेकिंग इंडिया की ओर ज्यादा रुख करना चाहिए, ताकि जरूरत के समय हमें किसी और की ओर न देखना पड़े। मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि रक्षा के मोर्चे पर आत्मनिर्भर होने की जरूरत अब तेजी से बढ़ती जा रही है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)