ज्योति सिडाना
आज भारत का मध्य वर्ग सिकुड़ता जा रहा है, निम्न वर्ग का विस्तार हो रहा है और ऐसे में भारतीय अरबपतियों की संपत्ति में पैंतीस फीसद वृद्धि हुई है। यानी भारत अरबपतियों की संपत्ति के मामले में अमेरिका, चीन, जर्मनी, रूस और फ्रांस के बाद विश्व में छठे स्थान पर आ गया। जाहिर है, महामारी में भी संपन्न वर्ग पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा, अपितु उसकी संपत्ति में तो इजाफा ही हुआ है।
भारत सर्वाधिक मध्यवर्गीय आबादी वाला देश है। और यह भी उतना ही सच है कि सबसे ज्यादा गरीब भी यहीं हैं। अमेरिका के प्यू रिसर्च सेंटर की एक रिपोर्ट के अनुसार कोविड महामारी के दौरान दुनिया भर में गरीबी के स्तर पर चले गए लोगों में साठ फीसद भारतीय हैं। इस दौरान भारत में मध्यवर्गीय आबादी में तीन करोड़ से ज्यादा की कमी आई है। जबकि कोरोना से पहले मध्य वर्ग की आबादी लगभग दस करोड़ थी। दूसरी ओर, निर्धन आबादी में साढ़े सात करोड़ की वृद्धि हुई है।
अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में ग्रामीण गरीबी दर बढ़ कर पंद्रह फीसद हो गई है। शहरी गरीबी दर में लगभग बीस फीसद पर पहुंच गई है। ये आंकड़े इतने भयावह हैं कि इन्हें देख कर ही भविष्य के संकटों और चुनौतियों का अनुमान सहज ही लग जाता है। बढ़ती गरीबी के कारण आबादी का बड़ा वर्ग निराशा के गर्त में जा है। रोजगार छिनने, आय में कटौती होने, जमा पूंजी सिमटते जाने, स्वास्थ्य और अन्य आवश्यक आधारभूत संसाधनों की कमी के कारण लोग खुदकुशी जैसे कदम उठाने को मजबूर हो रहे हैं।
मध्य वर्ग से अभिप्राय दस से बीस डॉलर रोजाना (साढ़े सात सौ रुपए से डेढ़ हजार रुपए) तक की कमाई करने वालों से है। विकासशील देशों के तकरीबन दो-तिहाई परिवारों को कोरोना काल में आमदनी में भारी नुकसान झेलना पड़ा है। नब्बे के दशक के बाद यह पहला मौका है जब दुनिया में मध्य वर्ग की आबादी में इतनी तेजी से गिरावट आई है। प्यू की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2011 में दुनिया में मध्य वर्ग की आबादी तेरह फीसदी थी जो 2019 में बढ़ कर उन्नीस फीसदी हो गई थी। भारत के संदर्भ में देखें तो महामारी के दौरान देश के 3.2 करोड़ लोगों का मध्य वर्ग की श्रेणी से बाहर होना न केवल चिंता का विषय है, बल्कि भारतीय अर्थव्यवस्था के समक्ष एक गंभीर चुनौती भी है। क्योंकि मध्य वर्ग ही सबसे बड़ा उपभोक्ता वर्ग भी है जो बाजार की दिशा को सुनिश्चित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसलिए मध्य वर्ग का सिकुडऩा न केवल आर्थिक अपितु सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक चुनौतियों को भी उत्पन्न कर रहा है।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि वर्ष 2021 में कृषि और बिजली को छोड़ कर बाकी सभी क्षेत्रों जैसे व्यापार, निर्माण, खनन, विनिर्माण क्षेत्र और निजी क्षेत्र को महामारी ने व्यापक रूप से प्रभावित किया है। एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में असंगठित क्षेत्र के चालीस करोड़ कामगारों में से अधिकांश इन्हीं क्षेत्रों में काम करते हैं। असंगठित क्षेत्र की आबादी का बड़ा हिस्सा इस वक्त बेरोजगारी का सामना कर रहा है। संकट के इस दौर में आय के सभी स्रोत बंद होने के कारण यह वर्ग या तो गरीबी के मुंह में चला गया है या जाने वाला है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआइई) के आंकड़ों के मुताबिक इस वक्त देश में बेरोजगारी दर फिलहाल ग्यारह फीसद से अधिक है।
ऐसा नहीं है कि महामारी ने विश्व के दूसरे देशों की अर्थव्यवस्था को प्रभावित नहीं किया। लेकिन शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के मूलभूत ढांचे पर कम खर्च करने के कारण हमारी अर्थव्यवस्था पर महामारी का असर ज्यादा तेजी से पड़ा है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) ने भी स्वीकार किया है कि महामारी के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था के साढ़े चार फीसद से ज्यादा सिकुडऩे का अनुमान है। यह भी एक तथ्य है कि महामारी से पहले भी यहां व्यापक आर्थिक असमानता और मंदी जैसे संकट मौजूद थे।
वर्ष 2018 में देश की कुल संपत्ति का तिहत्तर फीसद हिस्सा केवल एक फीसद अमीर लोगों के पास था, जो 2017 में अ_ावन फीसद हिस्सा था। यह चौंकाने वाला तथ्य ही है कि साल भर में कुल संपत्ति का पंद्रह फीसद और हिस्सा एक फीसद अमीरों की झोली में पहुंच गया। आज भारत का मध्य वर्ग सिकुड़ता जा रहा है, निम्न वर्ग का विस्तार हो रहा है और ऐसे में भारतीय अरबपतियों की संपत्ति में पैंतीस वृद्धि हुई है। यानी भारत अरबपतियों की संपत्ति के मामले में अमेरिका, चीन, जर्मनी, रूस और फ्रांस के बाद विश्व में छठे स्थान पर आ गया। जाहिर है, महामारी में भी संपन्न वर्ग पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा, अपितु उसकी संपत्ति में तो इजाफा ही हुआ है। यह कहने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि इस असमानता की जड़ें हमारी आर्थिक नीतियों में ही मौजूद हैं।
कोविड-19 से पहले भारत में महिलाओं में बेरोजगारी की दर पंद्रह फीसद थी, जो बढ़ कर अठारह फीसद हो गई। जिन महिलाओं ने अपनी नौकरी नहीं गंवाई, उनको भी अपनी आय में तिरासी फीसद तक की कटौती का सामना करना पड़ा। यानी इस महामारी की मार ने महिलाओं के प्रति असमानता को और भी गहरा कर दिया। इस तथ्य को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता कि मध्य वर्गीय महिलाएं भी परिवार में आर्थिक योगदान करती हैं। इसलिए यह भी एक बड़ा कारण है महिलाओं के रोजगार पर असर पडऩे से परिवार की आमदनी पर भारी असर पड़ा जिसने मध्य वर्ग के आकार को छोटा किया है।दरअसल, उपभोक्ता संस्कृति के विस्तार के बाद से ही मध्य वर्ग के चरित्र में व्यापक बदलाव देखे जा रहे हैं। जैसे व्यक्तिवादिता का वर्चस्व, एकल परिवार, दिखावे का उपभोग, उच्च प्राप्ति की लालसा इत्यादि। इसके परिणामस्वरुप मध्य वर्ग के सामाजिक सरोकारों में भी बदलाव आया है। और सबसे ज्यादा तो वह संवेदनशून्य हो गया है। इसका उदाहरण सामने है। किसान आंदोलन, छात्र व शिक्षक आंदोलन, राजनीतिक विरोध, सामाजिक-आर्थिक मुद्दों पर विमर्श जैसे पक्षों की अनदेखी या उन पर मौन की संस्कृति का समर्थन अब मध्य वर्ग के व्यक्तित्व का अनिवार्य हिस्सा बन गए हैं। संभवत: यही कारण है कि वर्तमान संकट के दौर में भी उसने मौन धारण कर लिया है। यहां तक कि अब महंगाई जैसे मुद्दे पर भी मध्यवर्ग की ओर से कोई हलचल देखने को नहीं मिल रही, जबकि सबसे ज्यादा त्रस्त वही है और इसका सबसे बड़ा खतरा भी उसी पर है।सवाल है कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि सरकार की आर्थिक नीतियों से सबसे ज्यादा प्रभावित मध्य वर्ग ने सामाजिक सरोकारों के प्रति भी मौन की संस्कृति अपना ली है। न केवल दूसरों के साथ होने वाली घटनाओं के प्रति अपितु स्वयं या स्वयं के समूहों/ समुदायों के साथ होने वाली घटनाओं के प्रति भी अब वह कुछ नहीं बोलता और न ही कोई प्रतिरोध दर्ज कराता है। बढ़ती महंगाई, संसाधनों की अनुपलब्धता, स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव, बेरोजगारी, शिक्षा का गिरता स्तर व भविष्य की अनिश्चितता, वेतन में मनमानी कटौती, महिलाओं एवं दलितों के लिए असुरक्षित वातावरण, हिंसक घटनाओं में वृद्धि इत्यादि ऐसे महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती, लेकिन फिर भी मध्य वर्ग शांत है।
यह गंभीर स्थिति है जिस पर समाज के बुद्धिजीवी वर्ग को चिंतन करने की आवश्यकता है।
शक्ति के संदर्भ में देखें तो निर्धन आबादी सबसे कमजोर समूह है। हर प्रकार का अभाव उसे हाशिए पर करता चला जाता है, चाहे फिर प्राकृतिक प्रकोप हों, महामारी हो या समाज द्वारा उत्पन्न आर्थिक असमानता। दरअसल, निर्धनता को असमानता के साथ जोड़ कर देखे जाने की जरूरत है। जैसे-जैसे निर्धनता का विस्तार होता है, असमानता और अधिक जटिल होती चली जाती है और फिर इसी से राष्ट्र के समग्र और समावेशी विकास की प्रक्रिया में बाधाएं उत्पन्न होती हैं।