अहमदाबाद। व्यक्ति जब जन्म लेता है तब केवल उसके परिवार जन, स्वजन खुशियां मनाते है लेकिन जीवन जब अनोखी तरह से जी जाता है तो उसके जाने के बाद भी समस्त विश्व उसे उसके कार्यों के लिए अवश्य याद सकता ही है। कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्हें याद करना पड़ता है पर कुछ लोग ऐसे होते है जो सहजता से याद आ ही जाते हैं, क्योंकि उनका व्यक्त्वि ही कुछ ऐसा होता है जो मन को आकर्षित कर ले। ऐसी ही एक विरल विभूति, जिनमें पत्थर दिनवालों को भी पिघलाने का अद्भुत सामथ्र्य था, जिनकी आज 425 मीं स्वर्गारोहण तिथि है। ऐसे हीर सूरीश्वरजी म.सा. के चरण में भावपूर्वक वंदन-नमन।
गुणानुरागी, जैनं जयति शासनम् नाद को समस्त विश्व में गूंजित करने वाले, सुप्रसिद्ध जैनचार्य, गीतार्थ गच्छाधिपति प.पू.आ.देव राजयशसूरीश्वरजी म.सा. ने उपस्थित धर्मानुरागी श्रोताओं को संबोधित करते हुए फरमाया कि जब अंतर करुणा भाव हो तब ही पत्थर दिलवालों को यूं पिघला सकते है। जगत् गुरू के विरूद से सुशोभित प.पू.आ.देव हीरसूरीश्वरजी म.सा.ने अपने जीवन में अनेक क्रांतिकारी कार्य किये है। उनमें से मुघल सम्राट अकबर को प्रतिबोध अत्यंत सुप्रसिद्ध है। इस सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी कार्य को पूज्यश्री की दृष्टि से तथा मधुर वाणी में श्रमा करें।
दिल्ली प्रदेश में आज से कितने ही वर्षों पर्व अकबर राज्य चलता था। उसी राज्य में चांपा नाम की सुश्राविका रहती है चंपा श्राविका के छ: महीने के उपवास की सुंदर आराधना चल थी। यह अपने धर्म में तो रिवाज है कोई भी तपश्चर्या करें। उसे सुखशाता पृच्छा करना। अकबर राजा क लगा कि उपवास यानि उनके रोजा की तरह ही होंगे लेकिन पूछने पर पता चला कि यह तो केवल उबले हुए पानी पे छ: महीने से रह रही है। उनके आश्चर्य का कोई पार नहीं रहा, विश्वास नहीं हो रहा था कि कोई इंसान केवल पानी पे छ:-छ: महीने तक कैसे जी सकता है। उन्होंने चंपा श्राविका को अपने कारागृह में थोड़े दिन रखा और विश्वास हो गया कि यह कुछ खाती-पीती तो नहीं है। उनके आश्चर्य का कोई पार नहीं रहा। उन्होंने खुद सामने से जाकर चंपा श्राविका को पूछा कि आप ऐसी अग्र आराधना कैसे कर सकती है। पूज्यश्री फरमाते है कि कोई समर्पित सुश्रावक और सुश्राविका हो जा जिनशासन को, देव-गुरू को वफादार हो तो वह अवय ऐसा ही करेगा जैसे चंपा श्राविका ने किया। चंपा श्राविका ने कहा ये उग्र तपश्चार्य, आराधना मैं नहीं कर रही लेकिन देव-गुरू पसाय से हो रहा है। अर्थात् प्रभु और गुरू की कृपा का ही फल है। मुघल सम्राट अकबर ने पूछा कि, कौन तुम्हारे गुरू है? जिनकी कृपा से इतनी बड़ी आराधना कर पा रही हो। मुझे भी उनसे मिलना है। वो श्रण वो घड़ी मुघल सम्राट के लिए धन्य-धन्य भी जब सर्वप्रथम बार जगत् गुरू हीरसूरीश्वरजी म.सा. का नाम श्रवण किया। अकबर आगे पूछाते है। कि वो तो कहीं दूर बैठे हैं तो तुम पर उनकी कृपा कैसे बरस रही है? इसका अत्यंत सुंदर उत्तर चंपा श्राविका देती है हे राजन् सूर्य कहां बैठता है? कोसों दूर होकर भी वह जैसे कमल को खिला सकता है वैसे मेरे गुरूवर कृपा बरसाते है। बस फिर क्या सम्राट को जगत् गुरू के दर्शन की तड़पन जगी। उन्होंने पालखी, हाथी, घोड़े आदि का इंतजाम कर जगत् गुरू कोलेने भेजा। जगत् गुरू को समाचार मिले तो समस्त जैन संघ ने उन्हें मुघल सम्राट अकबर को प्रतिबोध करने जाने की विनंति की। जिस राजा में सर्वधर्म समन्वय करने की शक्ति हो, ऐसे राजा को प्रतिबोध करने जाना ही चाहिए। हीर सू.म.सा. जब दरबार में प्रवेश कर रहे थे तब गलीछा बिछाया हुआ था। उन्होंने राजन् से कहा हम इस पर चल नहीं सकते। राजा ने कहा कि आपके पावन चरणों से यह गलीछा गंदा नहीं होगा।लेकिन हीर सू.म.सा. ने कहा कि हम इस पर इसलिये चल नहीं सकते क्योंकि इसके नीचे क्या है दो दिखता नहीं शायद इसके नीचे कीड़ी-मकोड़ी हो सकती है। अकबर ने स्वयं ही गलीछा उठाया और देखा तो असंख्यात् कीड़ी मकोडीयां थी। प्रवेश से ही अकबर जगत् गुरू पर मोहित हुए। फिर तो प्रतिदिन व्याख्यान श्रवण तथा सत्यंग का लाभ लेते। लेते सम्राट का समस्त जीवन परिवर्तित हो गया।
हिंसक में से अहिंसक बना दिया अंतर के करुणा भाव और मैत्री भाव ने जगत् गुरू के सदुपदेश से पर्युषण महापर्व के आठा दिन और प्रारंभ और अंत के दो दिन मिलाकर कुल बाहर दिन मिलाकर अमारी प्रवर्तन कराने का निश्चित किया। जगत् गुरु के साथ बढ़ते संपर्क के कारण अकबर ने उन्हें अपने राज्य में आते समस्त जैन तीर्थों के वहीवट जैन धर्म के अनुयायियों को सौंप दिया तथा जैन तीर्थों को उनके चरणों तीर्थों की प्राप्ति हुई। जगत गुरू के मैत्री भूर्ण व्यवहार से मुसलमान राजा अकबर को प्रतिबोधित किया और आज अपने पास इतनी बड़ी धरोहर का खजाना है। बस मैत्री भाव को बढ़ाते जाये और स्व-पर कल्याण करते जाये क्योंकि तलवार से मनुष्य को नहीं उसकी संपत्ति को जीता जा सकता है। जबकि मैत्री से मनुष्य को उसके ह्रदय को जीता जा सकता है।
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