आचार्य डॉ.लोकेशमुनि
विश्व शांति दिवस प्रत्येक वर्ष '21 सितम्बरÓ को मनाया जाता है। मुख्य रूप से पूरी पृथ्वी पर शांति और अहिंसा स्थापित करने के लिए यह दिवस मनाया जाता है। आज जबकि दुनिया में अशांति, युद्ध एवं हिंसा की स्थितियां परिव्याप्त है, आज इंसान दिन-प्रतिदिन शांति से दूर होता जा रहा है। आज चारों तरफ फैले बाजारवाद ने शांति को व्यक्ति से और भी दूर कर दिया है। पृथ्वी, आकाश व सागर सभी अशांत हैं। राजनीति वर्चस्व, आर्थिक स्वार्थ और इंसानी घृणा ने मानव समाज को विखंडित कर दिया है। यूँ तो 'विश्व शांतिÓ का संदेश हर युग और हर दौर में दिया गया है, लेकिन इसको अमल में लाने वालों की संख्या बेहद कम रही है।
आज इंसान को इंसान से जोडऩे वाले तत्व कम हैं, तोडऩे वाले अधिक हैं। इसी से आदमी आदमी से दूर हटता जा रहा है। उन्हें जोडऩे के लिए प्रेम चाहिए, करुणा चाहिए, शांति-सौहार्द चाहिए, अहिंसा चाहिए और चाहिए एक-दूसरे को समझने की वृत्ति। ये सब मानवीय गुण आज तिरोहित हो गये हैं और इसी से आदमी आदमी के बीच चैड़ी खाई पैदा हो गयी है। एक का सुख दूसरे को सुहाता नहीं है, एक की उन्नति दूसरे को पसन्द नहीं है। सब अपने-अपने स्वार्थ में लिप्त हैं। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को, एक धर्म दूसरे धर्म को, एक सम्प्रदाय दूसरे सम्प्रदाय को यहां तक कि पिता, पुत्र, भाई आदि के बीच भी वह सौमनस्य दिखाई नहीं देता, जो दिखाई देना चाहिए।
भगवान महावीर ने 'जीओ और जीने दोÓ का मंत्र देकर मानव-मानव के बीच की दीवार को तोडऩे की प्रेरणा दी थी। उसी मंत्र को 'सर्वोदयÓ की बुनियाद बनाकर गांधीजी ने सबके उदय अर्थात सबके सुख का रास्ता चैड़ा किया था। लेकिन आसुरी शक्तियां हर घड़ी अपना दांव देखती रहती हैं। उन्हें विग्रह में आनंद आता है और आपसी द्वेष-विद्वेष से उनका मन तृप्त होता है। जिस प्रकार अहिंसा का स्वर मंद पड़ जाने पर हिंसा उभरती है, घृणा के बलवती होने पर प्रेम निस्तेज होता है, उसी प्रकार मानव के भीतर असुर के तेजस्वी होने पर देव का अस्तित्व धुंधला पड़ जाता है। यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि आपसी प्रेम घटने पर दुख बढ़ता है, आपसी मेल-मिलाप कम होने पर द्वेष-विद्वेष में वृद्धि होती है और स्वार्थ उभरता है तो परमार्थ की भावना लुप्त हो जाती है।आज इंसान भटक रहा है, कारण कि प्रेम-मोहब्बत के रिश्ते टूट गये हैं। जब तक ये टूटे रिश्ते जुड़ेंगे नहीं, आदमी की भटकन दूर नहीं होगी। अब भले ही विशाल परिवार की रचना संभव न हो, लेकिन मानव का विवेक यदि आपसी सौहार्द की ओर बढ़ेगा तो उसका शुभ परिणाम अवश्य निकलेगा। शांति लोगों के पारस्परिक व्यवहार पर निर्भर रहती है। शांति-सम्मेलन, शांति आंदोलन या इस प्रकार के जो उपक्रम चलते हैं, उनका अपना एक मूल्य होता है और वे उपक्रम सदा से चलते रहे हैं। सचाई यह है कि जनता हमेशा शांति के पक्ष में होती है। बहुत लोग अशांति को नहीं चाहते। अशांति को चाहने वाले कुछ लोग होते हैं। जो सत्तारूढ़ लोग होते हैं, वे विस्तारवादी भावना के फलस्वरूप अशांति के निमित्त बन जाते हैं। अशांति के निमित्त वे लोग भी बनते हैं जो अपने विचारों को दूसरों पर थोपना चाहते हैं। आज की जो सबसे बड़ी बीमारी है, वह है अपने विचारों का प्रसार। जो प्रजातंत्र में विश्वास करने वाले हैं, वे यही प्रयत्न करते हैं कि प्रजातंत्र की पद्धति और व्यवहार सारी दुनिया में फैले। जो कम्युनिज्म में विश्वास करने वाले हैं, उनका भी ऐसा प्रयत्न रहता है। इस प्रकार वादों के खेमे बन गए हैं।
'वसुधैव कुटुम्बकमÓ जैसे अनेक सूत्र भारतीय संस्कृति ने दिये हैं। कितना महान् और कितना उदारचेता रहा होगा हमारा वह ऋषि, जिसके मन में विशद् परिवार की भावना का जन्म हुआ होगा। उस पर आकाश से फूल बरसे होंगे और जब उस भावना से आकर्षित होकर कुछ लोग जुड़े होंगे तो वह कितने आनंद का दिन रहा होगा। लेकिन दुर्भाग्य से मनुष्य के भीतर देवत्व है तो पशुत्व भी है। देव है तो दानव भी तो हैं। दानव को वह नहीं सुहाया होगा और उसने अपना करतब दिखाया होगा। आज हम दानव का वही करतब चारों ओर देख रहे हैं। इस सनातन सत्य को भूल गये हैं कि जहां प्रेम है, वहां ईश्वर का वास है। जहां घृणा है, वहां शैतान का निवास है। इसी शैतान ने आज दुनिया को ओछा बना दिया है और आदमी के अंतर मे अमृत से भरे घट का मुंह बंद कर दिया है।
आज के विश्व की स्थिति देखिए। जो वैभवशाली हैं, उनके मन में भी शांति नहीं है। बल्कि उनमें उन्माद अधिक है। इसका कारण क्या है? मानवता के प्रति जो एकत्व की अनुभूति होनी चाहिए, उस दृष्टिकोण का विकास नहीं हुआ। इन जटिल से जटिलतर होती आज की परिस्थिति में शांति का स्वर बहुत महत्वपूर्ण है। यदि आज का मानव इतना दिग्भ्रांत नहीं होता तो शांति का प्रश्न इतना बलवान नहीं होता किंतु आज का मनुष्य भटक गया है। प्राचीनकाल में यत्र-तत्र छुटपुट लड़ाइयां होती थीं। एक राजा दूसरे राजा पर आक्रमण करता था। परंतु उसका असर सारे देश पर नहीं होता था। दक्षिण में होने वाले उपद्रवों का असर उत्तर में रहने वालों पर नहीं होता, क्योंकि यातायात, संचार के साधन अल्प थे। दुनिया बहुत बड़ी थी। एक दूसरे की दूरी बहुत थी। किंतु आज सारी दुनिया सिमट गई है। सारा विश्व एक परिवार की तरह हो गया है। विश्व के किसी भी कोने में जो घटना घटित होती है, उसका असर सारे विश्व पर होता है। अफगानिस्तान में जो हो रहा है, उसका असर दूर-दूर के देशों पर हो रहा है। एक बात भारत में होती है किंतु उसका असर अमेरिका में हो जाता है। आज हम सब एक-दूसरे के बहुत निकट हो गए हैं। मनुष्य बाहरी आकार से इतना निकट आ गया है कि शायद पहले कभी इतना निकट नहीं रहा। इस निकटता का ही यह परिणाम है कि वह शांति पर बल दे रहा है। दूसरी बात यह है कि आज संहारक-शस्त्रों के निर्माण की होड़ चल रही है, कोरोना जैसी महामारियों को फैलाने की होड़ लगी है। इनके परिणामस्वरूप सारा वातावरण भय से आक्रांत है। ऐसी स्थिति में सभी व्यक्ति शांति की मांग करने लगे हैं।
लोगों को यह भय है कि संहारक शक्ति, महामारियों के वायरस कुछ व्यक्तियों के हाथ में है। वे व्यक्ति यदि उन्मत्त हो जाएं, तो प्रलय होने में विलंब नहीं होगा। उन्माद को रोक पाना हर एक के वश की बात नहीं है। उन्मत्त व्यक्ति हिताहित नहीं सोचता। वह अपने आग्रह को क्रियान्वित करने में डटा रहता है। यहीं से विनाश प्रारंभ हो जाता है। अत: कोई भी व्यक्ति अपनी सुरक्षा के प्रश्न को गौण नहीं कर सकता। जैसी रोटी का प्रश्न हर व्यक्ति के लिए है, वैसे ही शांति का प्रश्न भी हर व्यक्ति के लिए बन गया है। हमारा भविष्य सितारों पर नहीं, किन्तु जमीन पर निर्भर है, वह हमारे दिलों में छिपा हुआ है। दूसरे शब्दों में कहें तो हमारा कल्याण अंतरिक्ष की उड़ानों एवं दूसरे ग्रहों पर बस्तियां बसाने में नहीं, लेकिन पृथ्वी पर आपसी सहयोग और सद्भावना में निहित है।
'वसुधैव कुटुम्बकम्Ó ही दुनिया का मूलमंत्र बन जाना चाहिए, इसी में मानवता का भला है। जैसा आचार्य विनोबा अक्सर कहते थे, ''यदि विज्ञान के साथ अहिंसा और प्रेम को जोड़ा जाये तो सर्वोदय का दर्शन मिलेगा, लेकिन अगर विज्ञान और हिंसा का मेल हो गया तो फिर सर्वनाश सुनिश्चित है।ÓÓ देखा जाए तो शांति के बिना जीवन का कोई आधार ही नहीं है। वैसे आमतौर पर इस शब्द का इस्तेमाल अंतरराष्ट्रीय संदर्भ में युद्धविराम या संघर्ष में ठहराव के लिए किया जाता है।
विश्व शांति दिवस को मनाने का मुख्य उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सभी देशों और नागरिकों के बीच शांति व्यवस्था कायम करना और अंतरराष्ट्रीय संघर्षों और झगड़ों पर विराम लगाना है। आधुनिक जगत का एक बड़ा सच है कि वही आदमी शांति का जीवन जी सकता है, जिसमें शक्ति होती है। शक्ति का तात्पर्य है अपनी बात पर मजबूत बने रहना। शंाति और शक्ति के साथ जीने का पहला सूत्र है- आत्मविश्वास। अपने पर भरोसा होना चाहिए। ऐसे आत्मविश्वासी लोग ही संघर्ष, आतंक और अशांति के इस दौर में शांति एवं अहिंसा की अहमियत का प्रचार-प्रसार करने के पात्र है, अहिंसा विश्व भारती ऐसे ही पात्र लोगों को संगठित करने में जुटा है।
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