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अहमदाबाद। लोभ के आगे क्षोभ नहीं है। मानवी सुख मिलाने के लिए धन के पीछे दौड़ता है। धन कमाकर सिर्फ उसका संग्रह करता है। लोभी बनकर इकट्ठा करता रहता है। उसके जीवन में दान के संस्कार नहीं है परिणामत: उसकी धन के प्रति आसक्ति बढ़ती जाती है।
अहमदाबाद में बिराजित प्रखर प्रवचनकार संत मनीषि, प्रसिद्ध जैनाचार्य प.पू. राजयण सूरीश्वरजी महाराजा श्रोताजनों को संबोधित करते हुए फरमाते हैं कि धन का कितना भी संग्रह करो उससे शांति नहीं मिलने वाली है। फिर उस धन का संचय किसलिए करना? शास्त्रकार महर्षि धन की तीन गति बताते हुए फरमाते हैं
दान भोग नाशस्तिस्त्रों गतयो भवन्ति वितस्य, यो न ददाति न भुड्क्ते तस्य तृतीय गति भवति।।
धन की तीन गति है दान, भोग एवं नाश। कहते हैं यदि आपने दान नहीं दिया और न ही अपने भोग के लिए उपयोग में धन का व्यय न किया हो तो धन की तीसरी गति होगी यानी उस धन का नाश अवश्य होगा ही।
कितने लोगों के दिमाग में एक शंका सी बैठ गई है कि धन देने से घटता है, बल्कि पूज्यश्री फरमाते हंै कि धन देने से घटने के बजाय बढ़ता है। जिस तरह छोटा सा बड़ का बीज बोने से तथा पानी के संयोग से वह विशाल बड़ का पेड़ बन जाता है, उसी तरह धन का दान करने से पुण्य का वृक्ष बढ़ता रहता है।
एक राजा बड़ा दानवीर था। जब जी में आया दान दे दिया करता था। आज तक कभी उसके दर से कोई खाली हाथ नहीं लौटता था। राजा की दानवृत्ति के कारण मंत्री बड़ा चिंतित था, उसने राजा को समझाने के लिए एक सुभाषित राजमहल के द्वार की बारसाख पर लिखवा दिया। आपदर्थं धनं रक्षेत् याने आपत्ति के लिए धन का रक्षण करना चाहिए ताकि वह काम में आ सके।
जब राजा राजसभा से अपने राजमहल पर आया। तो उसने यह वाक्य पड़ा। राजा तुरन्त ही समझ गए कि ये साहस मंत्री का ही है। मेरे दान देने से मंत्री बाज गया। मुझे शिक्षा देने के इरादे से उसने ये तरकीब अपनाई। राजा भी विद्वान थे तो उन्होंने भी एक लिखवाया। भाग्यवत क्वचापद याने भाग्यशाली यह वाक्य पढ़ा तो हैरत में पड़ गया। तत्काल उसने दूसरा वाक्य लिखवाया कदाचित् कुपियों देव यानी भाग्य कोपायमान हो जाए उस समय संग्रह किया हुआ धन काम में आ सकता है।
राजा ने जब ये वाक्य पढ़ा। उन्होंने भी चौथी लाइन लिखवा दी। संचितोंङपि विनष्यति यदि भाग्य कोपायमान हो जाएगा तो संचित धन भी नष्ट हो जाएगा अत: हे मंत्री! धन का संग्रह कभी नहीं करके दान देकर जन्म सफल करना चाहिए। महामंत्री की शान ठिकाने आ गई।
कहते हैं महाजन का हाथ सदा देने के लिए ऊपर ही रहता है। आपके पूर्वजों ने कभी किसी के आगे हाथ लंबा नहीं किया किंतु आज परिस्थिति ही कुछ अलग है। मांगने की वृत्ति बढ़ गई है। भगवान के पास जाते हैं तो भी कुछ न कुछ मांगते रहते हो। बाजार में गए तो भी सब्जी वाले को नहीं छोड़ते हो। वहां पर भी मांगने की ही वृत्ति रहती है।
सब्जी मंडी में जाकर आप सब्जी का भाव कसकर करने के बाद सब्जी तुलवाने हो और जब पैसा देने का अवसर आता है तो सब्जी वाले से कहते हो डाल-डाल थोड़ी को और डाल यह भीख नहीं हो क्या है? बेचारा दो पैसा कमाने की अपेक्षा रखता है तो आप आठ आना का को भी छोडऩे को तैयार नहीं है। हमें इन भिक्षावृत्तियों को सुधारना होगा और यह तभी संभव है जब हमारे धन का ममत्व कम होगा। जब ममत्व कम होगा दान देने की भावना अपने आप से जागृत होगी।