सुशील कुमार शर्मा
मां भगवती दुर्गा जगत-जननी हैं, अपरा हैं, प्रकृति हैं, मूल रूप से सबकी चेतना में उनकी ऊर्जा ही संचरित होती है। वे ममत्व की पराकाष्ठा हैं। तेज, दीप्ति, दुति, चेतना, कांति और जीवन प्रदायिनी उस ऊर्जा को समन्वित कर आध्यात्मिक चेतना का पर्व नवरात्र है।
9 देवियों की संयुक्त शक्तियां नवरात्र के रूप में पूजित होती हैं। साल में 4 नवरात्र होते हैं। बसंत नवरात्र, शारदीय नवरात्र एवं आषाढ़ व माघ के गुप्त नवरात्र। बसंत नवरात्र चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक, बसंत नवरात्र आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक, आषाढ़ गुप्त नवरात्र आषाढ़ शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक एवं माघ गुप्त नवरात्र माघ शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक माने गए हैं। साधना का अर्थ अपने को सीधा करना है अर्थात अपने मनोगत विचारों एवं अंतरात्मा की भाव संवेदनाओं के स्तर को ऊंचा उठाना है। नवरात्रि साधना का मुख्य उद्देश्य हमारे अंदर की पशुता को बिंदुरूप कर विराट देवत्व की प्रतिस्थापना है।
भारतीय गृहस्थ जीवन शक्तिपूजन, व्यक्तित्व संवर्धन एवं आध्यात्मिक चेतना जाग्रत करने का एक विराट संकल्प है। मां दुर्गा की पूजन से हमारे समाज में स्त्रियों को माता, देवी एवं पूज्य का स्थान प्राप्त होता है। नवरात्रों में देवी की पूजन से काम, क्रोध, मोह एवं लोभ पर नियंत्रण संभव है। मन अंत:करण, चित्त बुद्धि, अहंकार आदि का शोधन होकर बुरे संस्कारों का शमन होता है। हमारे तन और मन में रहने वाले राक्षसों, जो कि रोग, अहंकार, भय, बंधन, पाप, शोक, दु:ख एवं महामारी के स्वरूप में हमें प्रताडि़त करते हैं, इन सभी का दमन और शमन का उपाय नवरात्रि साधना है।
नवरात्रि साधना आध्यात्मिकता की ओर ले जाने वाली वह प्रक्रिया है जिससे हमारी चेतना पर छाई धुंध छंट जाती है एवं आंतरिक अवसाद नष्ट हो जाते हैं। नवरात्र साधना व्यक्तित्व का परिशोधन है। इससे चेतना की प्रखरता प्रगाढ़ होती है। पशु संस्कार देवत्व में बदलने लगते हैं। यह साधना मनुष्य को सामान्य से दैवीय स्तर प्रदान करती है।
वस्तुत: नवदुर्गा साधना आत्मचेतन की गहरी परतों को खोलकर प्रसुप्त शक्तियों को ऊर्जावान एवं जाग्रत बनाने की प्रक्रिया है। साधना का उद्देश्य कामनापूर्ति न होकर अंत:करण की निर्मलता की प्राप्ति है। श्रेष्ठ साधक सदा ही लोकहित में अपनी साधना का समर्पण करते हैं। हमारी 9 इन्द्रियों में निवास करने वाली साक्षात पराम्बा मां दुर्गा ही हैं। इन्हीं की साधना से ये 9 इन्द्रियां संयमित होती हैं एवं अंत में मन, शरीर और आत्मा को गति प्राप्त होती है।
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयम् ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चंद्रघण्टेति कुष्मांडेति चतुर्थकं।।
पंचमं स्कंदमातेति, षष्टम कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति, महागौरीति चाष्टमं।।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा प्रकीर्तिता:।।
कूर्म पुराण के अनुसार धरती पर स्त्री का जीवन नवदुर्गा के स्वरूपों में प्रतिबिम्बित है। जन्म ग्रहण करने वाली कन्या का रूप शैलपुत्री, कौमार्य तक ब्रह्मचारिणी, विवाह के पूर्व तक षोडशी चन्द्रघंटा, नए जीवन को धारण करने वाली कूष्माण्डा, संतान को जन्म देने वाली स्कंदमाता, संयम और साधनारत कात्यायनी, पति की अकारण मृत्यु को जीतने वाली कालरात्रि, संसार का उपकार करने वाली महागौरी एवं सर्वसिद्धि प्रदायिनी सिद्धिदात्री हैं।
नवदुर्गा साधना में विहित कार्य
* सच्चे मन से अपनी एक बुराई को दूर करने का संकल्प लें।
* धार्मिकता का अर्थ अंधविश्वास नहीं होता है। अपने आसपास में अगर आपको लगता है कि अंधविश्वास पनप रहा है तो उसे दूर करने का संकल्प लें।
* प्रतिदिन एक समाज उपयोगी कार्य अवश्य करें।
* अपने घर के वातावरण को प्रेममय बनाएं। मातृस्वरूपा मां, बहन एवं अन्यान्य महिला संबंधियों को उनके रिश्ते के आधार पर सम्मान एवं आदर भेंट करें।
* प्रकृति का स्वरूप ही जगदम्बा है अत: इन 9 दिनों में प्रकृति के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करें। इन दिनों देखा जाता है कि लोग फूल, पेड़ और पौधों को विशेष रूप से करपुष्प के पौधों, बिल्वपत्र एवं शमी को बेरहमी से नोचते हैं। ये भी मां भगवती के ही अंग-प्रत्यंग हैं। इन्हें नुकसान पहुंचाकर आप अपनी साधना को सफल नहीं कर सकते हैं।
* प्रतिदिन मंदिर में जाकर मां के समक्ष जनकल्याण एवं देश-कल्याण की कामना करें।
* मां से अपने लिए कुछ न मांगें। मां आपकी हर स्थिति से परिचित हैं, आप तो सिर्फ मां का सान्निध्य मांगें। जब मां पास होंगी तो आपको कोई कठिनाई छू भी नहीं सकती।
* जो भी भोग मां को समर्पित करें, उसका सिर्फ 1 भाग बचाकर बाकी गाय और गरीब को दान कर दें।
* 9 दिन तक सदाचार से रहें। मानसिक एवं शारीरिक रूप से किसी का मन न दुखाएं।
* सात्विक आहार व व्रत का पालन करने से शरीर की शुद्धि एवं मन, क्रम व वचन से पवित्रता धारण होती है।
नवदुर्गा पूजन का क्रम
* प्रथम दिन उत्तम मुहूर्त में घटस्थापन : सभी देवताओं का आवाहन, आसान एवं अर्घ्य। बाकी दिनों में षोडशोपचार से पूजन करना चाहिए।
* दीप प्रज्वलन : अखंड ज्योति या पाठ ज्योति का प्रज्वलन।
* प्रतिदिन सभी आवाहित देवताओं के पूजन के पश्चात मां का षोडशोपचार से पूजन करना चाहिए।
* पूजन में बिल्व शाखा, बिल्व पत्र, शमी पत्र, श्रीफल, लाल कनेर, चंपा-चमेली के पुष्प का प्रयोग करें। दुर्गा पूजा में दूर्वा, तुलसी एवं आंवले का प्रयोग निषिद्ध है। गीले वस्त्रों में एवं महिलाएं खुले बालों के साथ दुर्गा पूजन न करें। हवन के समय गले में दुपट्टा आदि न डालें। सूतक में घटस्थापन एवं मूर्ति स्पर्श वर्जित है। ऐसे समय योग्य पंडित से पूजन करवाएं।
दुर्गा सप्तशती का पाठ क्रम निम्नानुसार करें
1. संकल्प, 2. कवच, अर्गला एवं कीलक का पाठ, 3. रात्रिसूक्त एवं देव्य अथर्वशीर्ष का पाठ, 4. न्यास सहित नवार्ण जप (108), 5. दुर्गा सप्तशती के 13 अध्यायों का पाठ, 6. न्यास सहित नवार्ण जप (108), 7. त्रिमूर्ति रहस्य पाठ (ये वैकल्पिक है सकाम अनुष्ठान में आवश्यक), 8. देवीसूक्त का पाठ, 9. सिद्ध कुंजिका स्तोत्र का पाठ, 10. क्षमा प्रार्थना स्तोत्र एवं जप समर्पण।
* आरती : मां भगवती दुर्गा की 14 बार आरती उतारने का विधान है। 4 बार चरणों में, 2 बार नाभि पर, 1 बार मुख पर एवं 7 बार संपूर्ण शरीर पर आरती उतारना चाहिए। आरती की बत्तियों की संख्या विषम होनी चाहिए।
* प्रत्येक दिन 9 वर्ष तक की कन्याओं का विधिवत पूजन करके उनका प्रिय भोज्य पदार्थ अर्पण करना चाहिए।
नवरात्र में मां दुर्गा को लगाए जाने वाले भोग
1. प्रतिपदा को घी का भोग लगाएं, इससे रोगों से मुक्ति मिलती है। 2. द्वितीया को शकर का भोग लगाएं, इससे दीर्घायु की प्राप्ति होती है।
3. तृतीया को दूध का भोग लगाने से दैहिक एवं भौतिक दुखों से मुक्ति मिलती है। 4. चतुर्थी को मालपुआ का भोग लगाएं, इससे बुद्धि की प्राप्ति होती है। 5. पंचमी को केले का भोग लगाने से परिवार में सुख-शांति व्याप्त होती है। 6. षष्ठी के दिन शहद का भोग लगाने से धन संबंधी परेशानियों से मुक्ति मिलती है। 7. सप्तमी को गुड़ का भोग लगाने से दरिद्रता का नाश होता है। 8. महाष्टमी को खीर एवं हलुआ पूरी का भोग लगाने से संतान एवं सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है। 9. नवमी को विभिन्न अनाजों का भोग लगाने से आध्यात्मिक एवं पारलौकिक शक्तियां प्राप्त होती हैं।
मां की साधना हमेशा उनके सूर्य मंडल भव्यस्था की छवि बनाकर करनी चाहिए। उच्चस्तरीय साधना में मां का पूरा आवरण शुभ्रा ज्योति के स्वरूप में ही परिलक्षित होता है। प्रथम स्तरीय के साधकों में मां का नारी देह स्वरूप एवं स्वप्न एवं सुप्त अवस्थाओं में जाग्रति साक्षात्कार होता है। उच्चस्तरीय साधकों को प्रकाश की छोटी चिंगारियों एवं तेजस्वी ज्योतिपिंड के रूप में दर्शन व साक्षात्कार होता है।
नवदुर्गा की साधना आध्यात्मिक विचारों को व्यावहारिक रूप में परिणित करती है। इस साधना से हमारे अन्नमयकोश, मनोमयकोश, प्राणमयकोश, विज्ञानमयकोश एवं आनंदमयकोश उपचारित होकर ऊर्जावान बनते हैं। इससे साधक दुर्लभ योगी की श्रेणी प्राप्त कर सकता है। इन पांचों कोषों का संवर्द्धन एवं प्रक्षालन मां की साधना से संभव होकर उनके सान्निध्य की प्राप्ति कराता है एवं मां अपने पुत्रों को अभयदान देती हैं।
सर्वबाधा विर्निमुक्तो धनधान्यसुतान्वित:।
मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशय:।।
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