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अहमदाबाद।  शाश्वती नवपदजी ओली का द्वितीय दिन यानी सिद्ध पद की आराधना। प्रत्येक पद को सर्वप्रथम नमन, वंदन, करना है। विनयपूर्वक योग्य स्थान पर नमस्कार करने से अवश्य कल्याण होगा। नम्रता से झुकना होता है। जहां अहंकार नहीं वहीं नमस्कार संभव है। कहते अनकंडीशनल नम्रता, समर्पण आ जाये तो पंच परमेष्ठि में अवश्य स्थान प्राप्त होगा।
अनेक प्राचीन तीर्थोद्धारक, प्रभावक प्रवचनकार, सुप्रसिद्ध जैनाचार्य, गीतार्थ गच्छाधिपति प.पू.आ. देव राजयसूरीश्वरजी म.सा. ने उपस्थित धर्मानुरागी श्रोताओं को संबोधित करते हुए फरमाया कि सिद्ध बनना हो तो साधना प्रारंभ कर दो। राग-द्वेष के कॉल रिसीव करना छोड़ दो। अरिहंत परमात्मा ने हमको सिद्ध भगवंतों के विषय में बताया है। सिद्ध भगवंतों का हम पर परोक्ष उपकार है। एक आत्मा जब मोक्ष में जाती है तब एक आत्मा अव्यवहार राशि से व्यवहार राशि में आती है। इस प्रकार सिद्धात्मा अपने परम उपकारी हुए। स्वयं के पुरूषार्थ से आठ-आठ कर्मों के साथ संग्राम में विजयी होकर अंत में अनंत सुख, अक्षय स्थिति को प्राप्त करते-करते भी दूसरे आत्मा पे परोपकार करते हैं। पूज्यश्री फरमाते है कि जैन धर्म की यह विशिष्टता है कि प्रत्येक आत्मा प्रत्येक पद को प्राप्त कर सकती है बस पुरूषार्थ की आवश्यकता है। योग्यता तो किसी में होती नहीं है वह तो प्रगटानी होती है। सौ व्यक्ति एक साथ सफर कर रहे थे। प्रात: 5.30 बजे की गाड़ी थी। सब लोग शांति से सो गए। एक व्यक्ति सुबह 4.00 बजे उठ गया। उसने अपने शेष साथियों को उठाया और सब बराबर गाड़ी में बैठ गए। इस छोटे से उदाहरण से यही समझना है कि यदि व्यक्ति भी जागृत हो तो वह समस्त विश्व को जागृत कर सकता है।
एक मानव जी यदि उठ जाये तो वह विश्व को जागृत करके ही रहता है। पूज्यश्री सिद्ध पद प्राप्ति के लिए उपस्थित सभासदों को प्रेरणा देतेहै कि प्रतिपल जागृत रहने से सिद्ध बन सकते है। प्रतिदिन विविध अनुप्रेक्षाओं द्वारा ह्रदय को भावनाओं से भाक्ति बनाये जिससे आनंद की प्राप्ति होगी। सिद्ध पद की आराधना करनी हो तो राग-द्वेष से स्वयं को दूर रखें। उनको रेड बोर्ड बताकर बोल दें कि आपकी यहां कोई इंट्री नहीं है। चाहे कोई गुस्सा करें या प्रशंसा करें कोई भी व्यक्ति के प्रति राग-द्वेष नहीं करना बल्कि समभाव में रहना। सिद्ध परमात्मा तो गुणों का और पुण्य का एक महान संगम है जो इस विश्व में और कहीं भी देखने नहीं मिलेगा। गुणों की पराकाष्टा और पुण्य का भंडार दोनों एक साथ पाना हो तो सिद्ध भगवंतों में पाया जा सकता है।
पूज्यश्री फरमाते हैं कि राग-द्वेष के प्रवाह से दूर रहकर स्वस्थ हो जाने से मोक्ष की साधना में, यात्रा में कोई बाधक तत्व नहीं आते। मोक्ष का आस्वाद यदि यहीं पे लेना हो तो राग-द्वेष से परे हो जाये। आपकी जितनी भी शक्ति है उसे अच्छे कार्यों में लगा दे और विषयों में बिलकुल फंसना नहीं। इंद्रियों के विषय से जो अलिप्त रहे वह आत्मा ही मोक्ष के नजदीक रह सकती है। सर्वसामान्य यही नियम है कि अनादि काल से जो आत्मा में राग-द्वेष के संस्कार है उन्हें दूर करके समता और वैराग्य की स्थापना करें। अनादिकाल के संस्कार ही ऐसे होते है कि आप आगे-आगे चलना चाहोगे तो भी वो आपको चलने नहीं देंगे पीछे खींचकर गिराने की ही कोशिश करेंगे। इन सभी संस्कारों को आराधना के बल से मिटा देना है तथा एक भव्य आत्मा की स्थापना करें। लाल वर्णीय, रक्त वर्णीय सिद्ध भगवंतों ने आठ-आठ कर्मों का क्षय करके अनंत-अव्याबाध सुख को प्राप्त किया है। उनके आशीर्वाद से, कृपा से हम भी शीघ्र राग-द्वेष से मुक्त होकर वीतरागीता को प्राप्त करे ऐसी मंगल प्रार्थना।