डॉ. अखिलेश त्रिपाठी
ेऐसा माना जाता है कि गांधी किसी एक शख्सियत का ही नही बल्कि एक पूरी विचारधारा का नाम है। इसी विचारधारा के एक अनुयायी स्वतंत्रता सेनानी स्वर्गीय पंडित मोतीलाल त्रिपाठी की आज 19 अक्टूबर को पुण्यतिथि है। स्वतंत्रता आंदोलन में भागीदारी, कुष्ठ रोगियों की सेवा, पत्रकारिता, खादी प्रचार-प्रसार मे सक्रिय और छत्तीसगढ़ राज्य आंदोलन मे अग्रणी भूमिका निभाने वाले श्री त्रिपाठी समाजवादी आंदोलन से जुड़े रहने के साथ ही ताउम्र खादी और गांधी विचारधारा के प्रति समर्पित रहे।
कहा जाए कि इन सब के पीछे उन्हें प्रेरणा पैतृक गुणों के रूप में मिली तो अतिशयोक्ति नहीं होगी, क्योंकि उनके पिता पंडित प्यारेलाल त्रिपाठी समाज सुधारक पंडित सुंदरलाल शर्मा के सहयोगी थे और स्वयं 1930 के जंगल सत्याग्रह के चलते नंदकुमार दानी के साथ अकोला जेल में रहे। 1932 में उन्हें 6 महीने की जेल हुई। इसके बाद 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भागीदारी के कारण भी कारावास भोगा था। पंडित प्यारेलाल त्रिपाठी, वरिष्ठ स्वतंत्रता सेनानी ठाकुर प्यारेलाल सिंह के भी मित्र रहे। ऐसे पिता के मंझले पुत्र के रुप में मोतीलाल का जन्म 24 जुलाई 1923 को छत्तीसगढ़ के राजिम के पास ग्राम धमनी में हुआ था। बाद में उनके दादा भुवनेश्वर प्रसाद तिवारी 'बिरतियाÓ बलौदाबाज़ार के पास ग्राम पलारी में बस गए। पिता से मिला देशभक्ति का जज़्बा बालक मोतीलाल के मन मे तो बसा ही था, यह जज़्बा उस समय और पल्लवित हुआ जब सिफऱ् दस साल की उम्र में उन्होनें पलारी से गुजर रही यात्रा के दौरान अपनी माता जामाबाई के हाथों से कते सूत की गुंडी (माला) पहनाकर महात्मा गांधी का स्वागत कियाज् तब महात्मा गांधी छत्तीसगढ़ के दूसरे प्रवास के दौरान रायपुर से सारागांव, खरोरा, पलारी होते हुए 26 नवंबर 1933 को बलौदाबाजार पहुंचे थे। बालक मोतीलाल की प्रारंभिक शिक्षा ग्राम पलारी में ही हुई। बाद में त्रिपाठी जी रायपुर के जैतूसाव मठ में रहकर पढ़े, तब जैतूसाव मठ राष्ट्रीय आंदोलनों का गढ़ हुआ करता था, उन्होंने हाईस्कूल की शिक्षा रायपुर के सेंटपॉल स्कूल से प्राप्त की। रायपुर में उनके अभिभावक के रुप में महंत लक्ष्मीनारायण दास मौजूद थे, जो पत्र के माध्यम से प्यारेलाल त्रिपाठी को उनके पुत्र मोतीलाल की सूचना दिया करते थे। 1939 में राष्ट्रीय विद्यालय रायपुर में एक सप्ताह का स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सत्याग्रहियों का शिविर लगा था, इसके चौहत्तर प्रशिक्षणार्थियों में से एक सोलह साल के किशोर मोतीलाल त्रिपाठी भी थे। इसके बाद 5 जनवरी 1941 को देश में व्यक्तिगत सत्याग्रह के दूसरे चरण की शुरुआत हुई और पढ़ाई लिखाई छोड़ कर 11 फरवरी 1941 को मोतीलाल इसके सत्याग्रही के रूप में चुने गए। उन्होंने रायपुर जिले में गांव-गांव पैदल चल कर आंदोलन का प्रचार किया। रायपुर, धमतरी, बलौदाबाजार घूमते त्रिपाठीजी सत्याग्रहियों के जत्थे के साथ बिलासपुर पहुंचे, जहां भुंडाभरारी गांव में सत्याग्रहियों ने सत्याग्रह किया। पुलिस ने सभी सत्याग्रहियों को गिरफ्तार कर बिलासपुर लाया, जहां की अदालत ने मोतीलाल त्रिपाठी, महंत सुखचैनदास, झाड़ूराम चंद्रवंशी(ग्राम जरवे) और रामस्वरुप दास (अकलतरा) को तीन साल की सजा सुनाई। 12 अप्रैल 1941 को इन सत्याग्रहियों को नागपुर जेल भेज दिया गया। 5 दिसंबर 1941 को गांधीजी के समझौत के अनुसार राजनीतिक बंदियों को रिहा किया गया। रिहा होने के पश्चात मोतीलाल ने महंत लक्ष्मीनारायण दास और पंडित रविशंकर शुक्ल के सुझाव पर खादी भंडार रायपुर में अपनी सेवाएं दी। प्रशिक्षण के बाद त्रिपाठी जी नरसिंहपुर खादी भंडार भेजे गए, जहां उन्हें लालमणि तिवारी और बिलखनारायण अग्रवाल का साथ मिला। इसी बीच नौ अगस्त 1942 से भारत छोड़ो आंदोलन शुरु हो गया, तब वहां खादी भंडार ही क्रांति का प्रमुख केंद्र था। पुलिस को अपनी सक्रियता की जानकारी मिलने पर त्रिपाठी जी भूमिगत होकर रायपुर आ गए, तब ठाकुर प्यारेलाल रायपुर में भूमिगत आंदोलन को संचालित कर रहे थे। मोतीलाल रायपुर आकर ठाकुर प्यारेलाल सिंह, वामनराव लाखे, लक्ष्मणराव उद्गीरकर, अम्बिकाचरण शुक्ल से जुड़े। लाखेजी पर्चे का मजमून बोलते थे, ठाकुर प्यारेलाल उसे हाथों से लिखते थे और रात में साइक्लोस्टाइल कर परचे बांटने का काम होता था। 26 जनवरी 1943 को परचे बांटने का काम सुंदरलाल उपाध्याय, दामोदर त्रिपाठी, मोतीलाल त्रिपाठी और रामचरण साहू को दिया गया। इन सभी को सदर बाजार स्थित गिरधर भवन के सामने परचे बांटते गिरफ़्तार कर लिया गया और छह महीने की सजा हुई, 14 जुलाई को रिहाई हुई। 1 अक्टूबर 1943 को मोतीलाल अपने गांव पलारी गए और 2 अक्टूबर को ही मुखबिर की सूचना पर पहुंचे नरसिंहपुर से कॉन्स्टेबल ने उन्हें फरार होने कारण गिरफ्तार कर लिया और नरसिंहपुर ले गए, जहां से वे 31 दिसंबर 1943 को रिहा हुए। मोतीलाल साल 1945 में गांधीजी के वर्धा स्थित आश्रम में उनके साथ 4 महीने रहे। (त्रिपाठी जी अक्सर अपने बच्चों को लिखावट सुधारने के लिए कहते हुए बताया करते थे कि तब वर्धा आश्रम की पत्रिका को अपने सुलेख से सजाने के कारण खुद गांधीजी ने उनकी लिखावट की तारीफ़ की थी।) स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान त्रिपाठी जी ने न केवल आज़ादी के गीत लिखे बल्कि वे उनका सस्वर पाठ भी किया करते थे, उनकी रचनाएं अंचल भर मे जानी जाती थी जैसे कि "रह चुके जालिम बहुत दिन/ अब हुकुमत छोड़ दो" और "सुलग चुकी है आग जिगर में उसे बुझाना मुश्किल है"। वहीं दूसरी तरफ़ "वंदेमातरम" और "रणभेरी बज चुकी,उठो वीरवर पहनो केसरिया बाना" यह अपने पसंदीदा दो गीत वह मृत्युपर्यंत अपनी ओजस्वी आवाज़ मे गुनगुनाते रहे। इसके अलावा वह रियासत विलीनीकरण आंदोलन से भी जुड़े रहे। त्रिपाठी जी की जीवन यात्रा उनकी पत्रकारिता के चर्चा के बिना अधूरी रहेगी। त्रिपाठी जी 1946 में महाकौशल अखबार में उपसंपादक के रुप में जुड़े तब इसका संपादन वरिष्ठ स्वतंत्रता सेनानी स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी करते थे। स्व त्रिवेदीजी के शब्दों में, "मुझे नहीं मालूम था कि मोतीलाल की औपचारिक शिक्षा का स्तर क्या था, लेकिन महाकौशल के प्रकाशन में वे पूरी दक्षता के साथ कार्य करते थे। तभी मैंने पत्रकारिता के क्षेत्र के साथ ही सहकारिता के क्षेत्र में उनकी गहन रूचि को जान लिया था।" महाकौशन के अलावा त्रिपाठीजी जनमत, अधिकार, उदय, मिलाप आदि पत्र-पत्रिकाओं से जुड़े रहे। उन्होंने अस्सी के दशक में रायपुर जिला सहकारिता संघ की पत्रिका "सहयोग-दर्शन" का संपादन भी उन्होंने 1983 तक किया। विवाह न करने की जि़द पर अड़े त्रिपाठी जी को स्वतंत्रता के पश्चात घरवालों के दबाव के चलते 1951 में विवाह करना ही पड़ा। उनका विवाह ग्राम मोहदी निवासी पंडित अनंतलाल शुक्ला की सबसे छोटी बेटी रमादेवी के साथ हुआ। विवाह के बाद वे खादी के प्रचार प्रसार के लिए हैदराबाद चले गए जहां से सन 1960 में लौटे और दो साल घर मे रहकर फिऱ 1962 में खादी के ही काम से शहडोल चले गए, जहां 1967 तक रहे।
1967 से रायपुर को ही फिऱ अपनी कर्मस्थली बनाते हुए यहीं समाजसेवा शुरु की। देश में लगे आपातकाला का 1976 में उन्होंने एक दिवसीय हड़ताल पर रह कर की। इसके पश्चात कई संस्थाओं-संगठनों से जुड़े रहने के साथ-साथ उन्होने जो मुख्य कार्य शुरु किया, वह था स्वतंत्रता सेनानियों के परिवार वालों को पेंशन और अन्य परेशानियों के निराकरण के लिए शासन-प्रशासन से लड़ाई और ख़तो-कि़ताबत का, इसी एक काम ने उन्हें छत्तीसगढ़ ही नही मध्यप्रदेश में भी सभी सेनानियों और उनके परिवारवालों के बीच लोकप्रिय भी बना दिया और मप्र शासन से लेकर छत्तीसगढ़ शासन ने विभिन्न कमेटियों में उन्हें नामांकित किया। उन्होंने पृथक छत्तीसगढ़ राज्य आंदोलन में भी अपना योगदान दिया, वे इस आंदोलन के अंतिम संयोजक रहे।
जीवन मे एक ही दफ़े अपने गृह ग्राम पलारी से रायपुर तक करीब 70 किमी सायकल चलाने वाले त्रिपाठी जी ने फिऱ कभी न तो सायकल चलाई और न ही कोई गाड़ी, बस ताउम्र पैदल चलकर ही वह कार वालों को भी मात देते रहे, यह उनकी एक पहचान भी बन गई थी। अगस्त क्रांति की वर्षगांठ के मौके पर राष्ट्रपति भवन में तत्कालीन राष्ट्रपति कलाम साहब के हाथों 9 अगस्त 2004 में दूसरी दफ़े सम्मान के लिए आमंत्रित त्रिपाठी जी का स्वास्थ्य नई दिल्ली मे ही खराब हो गया। उन्हें दिल्ली में ही राम मनोहर लोहिया अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां उपचार के बाद 12 अगस्त 2004 को उन्हें रायपुर लाया गया। किडनी में संक्रमण के कारण करीब ढाई महीने तक जूझने के बाद आखिरकार 19 अक्टूबर 2004 को आज़ादी के इस अदने से सिपाही ने हमेशा के लिए आंखें मूंद ली। उनकी संतानें आज अपने-अपने क्षेत्रों में उनका नाम रोशन कर रही हैं। उनके बड़े पुत्र डॉ अखिलेश त्रिपाठी छत्तीसगढ़ शासन के स्वास्थ्य विभाग के उपसंचालक पद से रिटायर हुए हैं जबकि दूसरे पुत्र राजेश परिवहन विभाग से सेवानिवृत हो चुके हैं, तो तीसरे पुत्र धनंजय एलआईसी के क्षेत्र में हैं और चौथे पुत्र संजीत उनकी पत्रकारिता की परंपरा का निर्वहन कर रहे हैं, वहीं उनकी बिटिया डॉ नीरजा शर्मा अपनी प्रैक्टिस कर रही हैं। जि़ंदगी भर अन्याय के खिलाफ़ प्रतिकार की उनकी भावना व उनकी सक्रियता आज की हमारी वर्तमान पीढ़ी के लिए एक चुनौती की तरह है। ऐसे प्रेरक व्यक्तित्व को उनकी पुण्यतिथि पर शत-शत नमन।
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