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मुंबई। कलाकार की सबसे बड़ी शोहरत और उसकी कला का सबसे बड़ा सम्मान है, उसका अपने किसी किरदार के नाम से अमर हो जाना। जो दर्जा हिंदी मनोरंजन जगत में प्राण के किरदार राका, अमजद खान के किरदार गब्बर सिंह, कुलभूषण खरबंदा के किरदार शाकाल, मुकेश तिवारी के किरदार जगीरा, नवाजुद्दीन सिद्दीकी के किरदार गणेश गायतोंडे को हासिल है, वही दर्जा धारावाहिक ‘चंद्रकांता’ के क्रूर सिंह के रूप में हासिल है अभिनेता अखिलेंद्र मिश्र को। 

..और सिर्फ कूर सिंह ही नहीं, अखिलेंद्र के निभाए तमाम और किरदार उनका जिक्र भर करने से आंखों के सामने तुरंत कौंध जाते हैं। जैसे, फिल्म ‘सरफरोश’ का ‘मिर्ची सेठ’, फिल्म ‘लगान’ का ‘अर्जन’, फिल्म ‘गंगाजल’ का बेईमान पुलिसवाला ‘भूरेलाल’ या फिर फिल्म 'द लीजेंड ऑफ भगत सिंह' में चंद्रशेखर आजाद का किरदार। हर किरदार को अखिलेन्द्र ने  शिद्दत के साथ जिया है। अखिलेंद्र मिश्र ही हैं आज की इस कड़ी में ‘हाशिये के सुपरस्टार'’..हाशिये के सुपरस्टार: पूरी दिल्ली में हुई इस अभिनेता की तलाश, मुन्नाभाई एमबीबीएस से पाया करोड़ों दर्शकों का प्यार

पिता से सिनेमा की बात...मुमकिन ही नहीं!
अखिलेन्द्र मिश्र बताते हैं कि वह ऐसे परिवार से आते हैं, जहां फिल्म देखने पर पिटाई हो जाती थी। ऐसे परिवार से निकल कर सिनेमा में अपनी पहचान बनना बहुत बड़ी उपलब्धि है। अखिलेन्द्र मिश्रा कहते हैं, 'उस जमाने में हमारे संस्कार और लिहाज ऐसे थे कि हम लोग पिता जी के सामने जाते तक नहीं थे। कोई बात कहनी तो दूर की बात है।

कोई भी बात कहनी होती थी तो मां को कहते थे और मां वह बात पिता जी तक पहुंचाती थीं। फिल्मों में काम करना है। यह बात पिताजी से बोल भी नहीं सकते थे, लेकिन मां ने पिताजी से मेरे मन की बात साझा की तो पिताजी की जो प्रतिक्रिया रही, उसने मेरे पंख खोल दिए। पिताजी ने कहा, मैंने उसे कहां रोका है कुछ करने के लिए।' 

जिया हो बिहार के लाला..!
अखिलेन्द्र मिश्र का जन्म बिहार में सीवान जिले के कुलवा गांव में हुआ। छह भाइयों में सबसे छोटे अखिलेंद्र की प्रारंभिक शिक्षा गुरुकुल में हुई। पिता छत्रपति मिश्रा गोपालगंज के डीएवी स्कूल में अध्यापक थे तो आगे की तीन चार साल तक की  पढाई यहीं हुई। पिताजी के तबादले के बाद अखिलेंद्र ने छपरा के उसी स्कूल से मैट्रिक की पढ़ाई पूरी की जहां से हमारे देश के पहले राष्ट्रपति डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद ने पढ़ाई की थी। अखिलेंद्र को उनके अभिभावक इंजीनियर बनाना चाहते थे। अखिलेंद्र ने इसकी तैयारी भी की लेकिन प्रवेश परीक्षा में सफल नहीं हो पाए तो छपरा के राजेंद्र कॉलेज से उन्होंने फिजिक्स ऑनर्स में बीएससी की।

लालटेन के उजाले में नाटक
अखिलेन्द्र मिश्र ने अभिनय की शुरुआत अपने गांव से ही कर दी। वह बताते हैं, 'नाटक हमने पेट्रोमैक्स के उजाले में किया और नाटक का रिहर्सल लालटेन के उजाले में। फिर इप्टा के साथ जुड़कर काफी समय तक थिएटर किया। अस्सी का दशक और बिहार का ब्राहण परिवार,  ऐसे में सिनेमा और नाटक के बारे में सोचना ही अच्छा नहीं माना जाता था। पढ़ लिखकर कोई नाटक, नौटंकी करे तो उसका कोई सम्मान ही नहीं था। 

आज भी गांव में सिनेमा करने वालों को अच्छा नहीं मानते हैं। आज आईएएस, पीसीएस, डॉक्टर, इंजीनियर का गांव में जो सम्मान है वह सिनेमा वालों को नहीं मिलता है। आज सिनेमा में कितना भी नाम और पैसा कमा लो लेकिन आज भी लोगों का नजरिया वैसा ही है।'

ब्रांड है 'चंद्रकांता' का क्रूर सिंह
अखिलेन्द्र मिश्र कहते हैं, 'आज अगर मुझे ऑस्कर अवार्ड भी मिल जाए तो भी मेरा ब्रांड चंद्रकांता ही है। लोग आज भले ही मुझे अलग अलग किरदार से जानें लेकिन गब्बर की तरह क्रूर सिंह का किरदार ही मेरा ब्रांड है। मुझे याद है जबसाल 1993 में मुझे पता चला कि नीरजा गुलेरी दिल्ली से मुंबई आई हुई हैं तो उनसे मिलने पंहुचा। देखा कि पहले से वहीं कतार में कई कलाकार लगे हुए हैं। जब मेरी  बारी आई तो नीरजा ने पूछा ‘चंद्रकांता’ पढ़ी है? मैंने बिना वक्त गंवाए ना  में जवाब दिया तो नीरजा को कुछ अलग बात लगी क्योंकि अब तक जितने भी कलाकार आए, सबने उन्हें इम्प्रेस करने के लिए कह दिया था कि उन्होंने ‘चंद्रकांता’ पढ़ी है। शायद  मेरी ईमानदारी से नीरजा इस कदर प्रभावित हुईं कि उन्होंने ‘क्रूर सिंह’ का रोल दे दिया।’

बदलाव नहीं मानसिक दिवालियापन
आज के सिनेमा के बारे में अखिलेन्द्र कहते हैं, 'आज की फिल्में आंधी तूफान की तरह आती हैं और चली जाती है। पता ही नहीं चलता कि कौन फिल्म कब आई और चली गई। ये फिल्में जड़ से जुडी हुई नहीं होती हैं। समस्या यह है कf हम पत्तों में पानी दे रहे हैं और चाहते है कि पेड़ हरा भरा रहे। जब तक हम जड़ में पानी नहीं देंगे तब तक पेड़ हरा भरा नहीं रहेगा। जो भी फिल्म समाज और सामजिक मूल्यों, संस्कार और परम्पराओं से जुड़ा हुआ होगा, वही फिल्मे चलेंगी। 

भारतीय साहित्य से जुडी फिल्में चलेंगी चाहे वह पैराणिक साहित्य हो या आधुनिक  साहित्य से जुड़ा हो। इस तरह की फिल्में जब आती हैं तो उसकी चर्चा होती है और वही फिल्में चलती हैं। पहले जो कमर्शियल फिल्में बनती थीं तो उसमें भी नैतिक मूल्य होता था। आज की फिल्मों वाली बहन को देख लीजिए किस तरह के कपडे पहनती हैं?