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कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को होने वाली गोर्वधन पूजा का बड़ा महत्व है, जिसे द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रजवासियों के द्वारा की जाने वाली देवराज इंद्र की पूजा के स्थान पर प्रारंभ की थी। इस पर इंद्रदेव ने क्रोधित होकर निरंतर सात दिनों तक इतनी भयंकर वर्षा की कि समूचा ब्रज मंडल डूबने लगा। यह देख भगवान श्रीकृष्ण ने ग्वाल-वालों की सहायता से अपनी तर्जनी अंगुली पर सप्तकोसी परिधि वाले विशालकाय गोर्वधन पर्वत को धारण कर लिया, जिसके नीचे समस्त ब्रजवासियों ने आश्रय प्राप्त किया। 
भगवान श्रीकृष्ण की इस अलौकिक लीला के प्रति नतमस्तक होकर देवराज इंद्र ने स्वयं उनके सम्मुख आकर उनसे क्षमा मांगी। भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं गिरिराज गोर्वधन का पंचामृत से अभिषेक कर उन्हें छप्पन प्रकार के व्यंजनों से भोग लगाया और विधिवत पूजन-अर्चन किया। इसी दिन से भगवान श्रीकृष्ण का एक नाम गोर्वधनधारी (गिरधारी) भी पड़ गया। गोर्वधन पूजा : उसी परंपरा में आज भी समूचे ब्रज में दीपावली के दूसरे दिन कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को गोर्वधन पूजा का पर्व श्रद्धा व भक्ति के साथ मनाया जाता है। वस्तुत: गोर्वधन पूजा प्रकृति की उपासना का प्रमुख पर्व है। इसके मूल में गौ, पृथ्वी और वन सम्पदा निहित है। उत्तर प्रदेश के मथुरा जिला मुख्यालय से 23 किलोमीटर दूर प्रकृति की सुरम्य गोद में बसा हुआ मनोहरी तीर्थ स्थल है गोवर्धन। यहां सात कोस की परिधि में विराजित है विष्णु रूप गिरिराज गोवर्धन पर्वत। गोर्वधन कस्बे में गोर्वधन पूजा की धूम अत्यंत निराली रहती है। इस पूजा की तैयारियां विजयादशमी से ही प्रारंभ हो जाती हैं। महिलाएं गाय के गोबर से गिरिराज गोर्वधन की मानवाकृति बनाती हैं। आकृति की टुंडी में बड़ा सा छेद बनाकर उसमें दूध, शहद, खील व बताशे आदि भरे जाते हैं।
 गोर्वधन आकृति के चारों ओर गाय बछड़ों को प्रदर्शित किया जाता है, जिनके मध्य में भगवान श्रीकृष्ण व पांचों पांडवों की आकृति भी बनाई जाती है। साथ ही इस आकृति के निकट गुजरिया, ग्वालिनि, मटकी, रई, चक्की आदि बनाई जाती है। गोवर्धन की आकृति पर कांस की सीकें और कपास व वृक्षों की पतली टहनियां आदि लगाकर उसे पर्वत का स्वरूप दिया जाता है।

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अन्नकूट महोत्सव

अन्नकूट के दिन ब्रजवासी गण अपने-अपने घरों में गिरिराज गोर्वधन का आकर्षक श्रृंगार करते हैं। राजभोग समर्पण के बाद उनकी आरती उतारी जाती है। ततपश्चात उनकी पूजा होती है। पूजा के बाद उन्हें छप्पन प्रकार के भोग लगाए जाते हैं। कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को प्राय: सभी मंदिरों व घरों में अन्नकूट महोत्सव धूमधाम के साथ मनाया जाता है। इस दौरान भजन संध्या, नयनाभिराम नृत्य एवं समाज गायन आदि के कार्यक्रम होते हैं।

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वस्तुत: गोर्वधन पूजा और अन्नकूट महोत्सव भगवान श्रीकृष्ण की एक अलौकिक लीला है, जिसमें एक ओर तो वह गिरिराज गोर्वधन के रूप में स्वयं पूज्य बने और दूसरी ओर उन्होंने नंदनंदन के रूप में ग्वाल वालों के साथ गाते-बजाते हुए गिरिराज गोर्वधन की पूजा-अर्चना की। साथ ही यह महोत्सव हमारी पुरातन संस्कृति में निहित अपने आराध्य के प्रति आस्था के अतिरिक्त माधुर्य व वैभव का भी प्रतीक है।