जीवन को लेकर हम बहुत चिंतन-मनन करते हैं। इसके बावजूद हम उसे स्पष्ट रूप से नहीं समझ पाते। इसका एक प्रमुख कारण यही है कि जब भी जीवन हमसे कोई प्रश्न करता है तो हम प्राय: उससे विमुख हो जाते हैं। हम उन प्रश्नों के उत्तर तलाशने का उपक्रम नहीं करते। एक बार किसी महापुरुष ने एक मछुआरे से पूछ लिया था कि जीवन क्या है, क्या तुम उसे जानते हो? तब मछुआरे ने बड़ी सहजता से कहा, 'हां, जानता हूं। मैं नदी से मछलियां पकड़कर, उन्हें बाजार में बेचकर अपने जीवन का निर्वाह करता हूं। मेरे लिए यही जीवन है।
इस पर महापुरुष ने कहा कि जिसे तुम जीवन कह रहे हो वह तो मृत्यु की ओर जा रहा है। ऐसे जीवन का क्या लाभ? आओ मैं तुम्हें उस जीवन की ओर ले चलता हूं, जो मृत्यु के पश्चात भी मौजूद रहता है। मछुआरे को आश्चर्य हुआ, 'मृत्यु के उपरांत भी जीवन?Ó महापुरुष ने बताया, 'हां वत्स, मृत्यु के पश्चात भी जीवन संभव है। जिसे तुम जीवन कह रहे हो उसका उद्देश्य ही उस जीवन को जानना है।
स्पष्ट है कि वह महापुरुष उस मछुआरे को वही शाश्वत सत्य बता रहे थे, जो कभी भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को, बुद्ध ने अंगुलिमाल को और स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानंद को बताया था। वास्तव में मनुष्य के कर्म और उसकी विरासत ही उसे मृत्यु के उपरांत भी इस चराचर जगत में जीवित रखते हैं। दुर्भाग्य की बात यही है कि सांसारिक कर्मों में लिप्त मनुष्य इस पर समय रहते ध्यान नहीं दे पाता। वह सांसारिक सुखों को ही जीवन का परम उद्देश्य मानकर परमात्मा से विमुख होता जाता है। जबकि वास्तविकता यही है कि सांसारिक सुखों में लिप्त सभी मनुष्य पल-प्रतिपल अपने जीवन को गंवा रहे हैं। वे अमर होने से स्वयं को दूर कर रहे हैं। इसीलिए समझदार लोग अपने पुरुषार्थ से सत्कर्म करते हैं और इसी जीवन में परमात्मा को जानने का प्रयास करते हैं। वस्तुत: यही इस जीवन की सार्थकता भी है।
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