मुंबई। आज आचार्य पद की आराधना का तीसरा दिन है। तृष्णा एक ऐसी आग है, जिसमें इच्छाओं का जितना ईंधन डालेंगे तृष्णा उतनी ही बढ़ती जाएगी। सारे जगत की रफ्तार को देखते है तो ऐसा लगता है जैसे इच्छाओं का कारवां चल रहा है। लोग ऐसी इच्छा करते हंै जिनका कभी अंत ही नहीं आता है।
मुंबई में बिराजित प्रवखर प्रवचनकार संत मनीषि, प्रसिद्ध जैनाचार्य प.पू. राजयश सूरीश्वरजी महाराजा श्रोताजनों को संबोधित करते हुए फरमाते है कितने लोग हमारे पैस आकर प्रश्न करते है साहेब! आप इच्छाओं के लिए ऐसी रात करते हो परंतु आप ही बताओं, क्या इच्छाओं के बगैर इस जगत में क्या, कोई भी कार्य हो सकता है? कहते जीवन में कुछ सिद्धि मिलानी हो, कुछ अच्छा कार्य करना हो तो इच्छाएं तो करनी ही पड़ेगी। साहेब! इच्छा के बिना जगत का व्यवहार कैसे चल सकता है। इच्छा बिना का कोई मानवी इस दुनिया में देखने को नहीं मिल सकता है पागल को भी इच्छा होती है मूर्ख को भी इच्छा होती है। प्राज्ञ को भी इच्छा होती है। इस जगत में इच्छा बिना का कोई मानवी नहीं मिलेगा। जहां मन है वहां पर अवश्य इच्छा होगी ही। कभी-कभी तो हम बोल देते है मुझे ऐसा मन हुआ। तो मन शब्द ही इच्छा का पर्यायवाची शब्द बन जाता है।
कहते है इच्छा बिना जीवन की गति भी नहीं होती, प्रगति भी नहीं होती है। पूज्यश्री ने उस युवान को जवाब दिया, आप की बात ठीक है परंतु एक प्रश्न है आप इच्छा कितनी होंगे तथा कब तक करते रहेंगे? आपकी इच्छा यदि अमाप है तो सुवर्ण के पर्वत जितना यदि आपको मिल जाए। हीरा-मणि-रत्नों का ढेर भी यदि तो जाए तो क्या आपकी इच्छा रूक जाएगी?
शास्त्रकार महर्षि फरमाते है, ईच्छाओं का अंत नहीं आता है। उत्तराध्ययन सूत्र में बताया है, ईच्छाउ आगास समा अणंतया इच्छा आकाश की तरह अंतहीन है। किसी चिंतक ने कहा है, आकाश के समान ईच्छा अनंत है। इच्छा को हम कितना भी चाहने पर भी नहीं रोक सकते है किंतु इच्छा पर नियंत्रण तो जरूर कर सकते है। आपके जीवन में यदि संतोष चाहिए तो आपको तृष्णा पर काबू लाना ही पड़ेगा कहते है तृष्णा रोके बिना तृप्ति नहीं होती है।
एक सुंदर दृष्टांत बताते हुए पूज्यश्री फरमाते है एक राजा था। उसने अपने पास एक बकरी रखी थी। एक बार सभा में उसने सभी दरबारियों के समक्ष कहा कि इस बकरी को भरपेट खाना देना कि दूसरी बारवह फिर से खाने की ईच्छा ही न करें। कितने दरबारियों ने कोशिश की। बकरी को भरपेट खिलाकर राजा के समक्ष लाया किन्तु राजा जब उसने घास देना था तब वह भूखी ही रहती। एक दरबारी ने कहा, राजन्! ये तो कबरी का स्वभाव होता है कि उसके सामने कुछ भीरखो वह मुंह डाले बिना नहीं रहतीहै। राजा इताश हुए क्योंकि कोई भी व्यक्ति उसकार्य में सफल नहीं हुआ।
तभी सभा में से एक युवान ने कहा राजन्! ये काम मैं करूंगा। वह युवान बकरी को अपने घर ले आया। राजा ने बकरी के सामने घास डाला। परंतु बकरी ने उस घास में मुंह नहीं डाला। राजा ने कहा, वाह युवान। आज तुमने बकरी को क्या खिलाया है कि बकरी, घासनहीं खाती है? युवान ने हंसकर कहा, राजन्! मैंने बकरी को कुछ खिलाया नहीं है, केवल शिक्षित किया है। वह जब भी घास खाने मुंह डालती थी तब मैं उसने दंडा मारता था। तीन दिन में बकरी समझ गई कि यदि मैं घास खाने की इच्छा करुंगी तो दंडा पड़ेगा। उस दिन से उसने घास खाने की आसक्ति छोड़ दी।
यदि संसार में हमें कुछ करना भीपड़े तो इच्छा को सीमित करो। जो भी इच्छा है उसमें आसक्ति मत करो। जीवन में सुखी बनने का उपाय यही है प्रगति के बावजूद भी जीवन में अनासक्ति का भाव पुष्ट करें।
आसक्ति शक्ति की हानि करता है
अनासक्ति शक्ति को दृढ़ बनाती है। बस अनासक्त भाव से जीवन जीकर शीघ्र आत्मा से परमात्मा बनें।
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