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भारत ने ये साफ कर दिया है कि वो अब रक्षा उत्पादों का आयात करने की जगह उन्हें खुद तैयार करेगा। यही समय की मांग भी है। भारत ये पहल ऐसे समय में कर रहा है कि जब यह बेहद अनिवार्य है। कोई भी इसी के जरिए आत्मनिर्भर बनता है।
रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने फिक्की के वार्षिक सम्मेलन को संबोधित करते हुए यह जो कहा कि रूस, अमेरिका, फ्रांस आदि देशों को यह संदेश दे दिया गया है कि भारत अब रक्षा उत्पादों का आयात करने के स्थान पर उन्हें स्वयं तैयार करेगा, वह समय की मांग के अनुरूप है। एक ऐसे समय जब देश को आत्मनिर्भर बनाने की पहल हो रही है, तब यह आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है कि रक्षा क्षेत्र में भी आत्मनिर्भरता हासिल की जाए। कोई भी देश वास्तविक रूप में महाशक्ति तभी बनता है, जब वह अपनी रक्षा जरूरतों की पूर्ति अपने स्त्रोतों से करता है। यह स्वागतयोग्य है कि भारत इस दिशा में कदम बढ़ा रहा है। इसका एक प्रमाण यह है कि सोसायटी आफ इंडियन डिफेंस मैन्यूफैक्चर्स के सदस्यों की संख्या पांच सौ से अधिक हो गई है और पिछले सात वर्षो में भारत का रक्षा निर्यात भी 38 हजार करोड़ रुपए का आंकड़ा पार गया है। यह एक उल्लेखनीय आंकड़ा है, लेकिन इसमें और वृद्धि अपेक्षित है, क्योंकि भारत आज भी दुनिया के उन देशों में शीर्ष पर है, जो बड़े पैमाने पर रक्षा सामग्री का आयात करता है। हमारी विदेशी मुद्रा का एक बड़ा हिस्सा रक्षा उपकरणों की खरीद में खर्च होता है। यदि देश में ही अधिकाधिक रक्षा उत्पादों के निर्माण पर बल दिया जाए तो उनके आयात में कहीं अधिक आसानी से कमी लाई जा सकती है। यह काम इसलिए किया जाना चाहिए, क्योंकि कई बार तमाम विदेशी मुद्रा खर्च करने के बाद भी हमारी सेनाओं को आवश्यक रक्षा सामग्री समय पर नहीं मिल पाती। इससे हमारी रक्षा तैयारियों पर बुरा असर पड़ता है। यह ठीक है कि मोदी सरकार के कार्यकाल में रक्षा सौदों को अंतिम रूप देने का काम कहीं अधिक तत्परता से हो रहा है, लेकिन आज की आवश्यकता रक्षा सामग्री का आयातक नहीं, बल्कि निर्यातक बनने की है। अभी भारत रक्षा सामग्री का निर्यात करने वाले शीर्ष 20 देशों की सूची से बाहर है। कोशिश यह होनी चाहिए कि अगले एक-डेढ़ दशक में भारत ऐसे शीर्ष 10 देशों में अपना स्थान बनाए। भारत को मिसाइलों की तरह न केवल विश्वस्तरीय लड़ाकू विमान, टैंक, पनडुब्बियां बनाने में महारत हासिल करनी चाहिए, बल्कि छोटे हथियारों का निर्माण करने में भी दक्ष होना चाहिए। चूंकि इस उद्देश्य की पूर्ति निजी क्षेत्र के सहयोग से ही संभव है, इसलिए रक्षा मंत्री की ओर से निजी क्षेत्र की कंपनियों को इसके लिए प्रोत्साहित करना आवश्यक था कि वे जर्मनी की तर्ज पर रक्षा सामग्री बनाने वाले औद्योगिक ढांचे को तैयार करें। उन्हें इस चुनौती को स्वीकार करना चाहिए।