नीट पीजी काउंसिलिंग में देरी के खिलाफ रेजिडेंट डॉक्टरों की कई दिनों से जारी हड़ताल व दिल्ली में विरोध-प्रदर्शन के बाद अब देशव्यापी सेवा-बहिष्कार की घोषणा ने एक बार फिर यह उजागर किया है कि हमारा तंत्र किसी भी समस्या के प्रति तब तक उदासीन बना रहता है, जब तक कि उससे व्यवस्था बुरी तरह प्रभावित न होने लगे। रेजिडेंट डॉक्टरों की हड़ताल के कारण पहले ही राजधानी के ज्यादातर बड़े अस्पतालों की सामान्य चिकित्सा सेवा सहित आपातकालीन सेवाएं प्रभावित हुई हैं, और मरीजों को कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। इस बेहद मानवीय पहलू को ध्यान में रखते हुए कि राजधानी में इलाज के लिए देश भर से लोग आते हैं, और इनमें भी सर्वाधिक संख्या निम्न आय वर्ग या मध्य वर्ग के मरीजों की होती है, सरकार व युवा डॉक्टरों को अतिरिक्त संवेदनशीलता बरतनी चाहिए। इन रेजिडेंट डॉक्टरों के कंधों पर सरकारी अस्पतालों की चिकित्सा व्यवस्था का काफी दारोमदार होता है। उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि समाज के ये वर्ग निजी अस्पतालों में इलाज का बोझ नहीं उठा सकते। यह सही है कि सामान्य परिस्थिति होती, तो जनवरी में ही पीजी की प्रवेश परीक्षा आयोजित हो चुकी होती, और आगे की प्रक्रिया भी अपने अंजाम पर होती। लेकिन कोविड-19 के कारण पहले तो इस प्रवेश परीक्षा को कई महीनों तक टालना पड़ा और जब सितंबर में परीक्षा हुई, तो उसके बाद आरक्षण व्यवस्था में आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग की एक नई श्रेणी का मसला सुप्रीम कोर्ट में पहुंच गया और फिर विलंब होता गया। एमबीबीएस कर चुके लगभग 45,000 जूनियर रेजिडेंट डॉक्टर करीब एक साल से इसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं और उनकी मांग है कि सरकार सुप्रीम कोर्ट से जल्दी अनुरोध कर इस मसले को निपटाए। स्वास्थ्य मंत्री ने कुछ दिनों पहले उन्हें आश्वासन भी दिया था, मगर वह संतुष्ट नहीं कर सके। देश भर की शिक्षा व्यवस्था पर महामारी का असर पड़ा है, और मेडिकल शिक्षा इससे अलग नहीं है। शायद तंत्र में संजीदगी की कमी ने उन्हें अधीर किया है, इसलिए सरकार को फौरन उनसे संवाद करना चाहिए। एक ऐसे समय में, जब देश ओमीक्रोन को लेकर काफी सशंकित है, तब स्वास्थ्य सेवा से जुड़े लोगों और सत्ता-प्रतिष्ठान में बेहतर तालमेल की जरूरत है। देश जानता है और उसने देखा है कि हमारे सरकारी अस्पताल और डॉक्टर काफी दबाव में काम करते हैं और कोविड-19 महामारी के दौरान उनका योगदान अप्रतिम रहा। लेकिन चिकित्सक बिरादरी को भी यह याद रखना चाहिए कि जब कभी वे देशव्यापी सेवा-बहिष्कार जैसे चरम कदम उठाते हैं, तो उनके आंदोलन का नैतिक बल कमजोर पड़ता है, क्योंकि इसके सबसे बुरे शिकार गरीब लोग होते हैं। इसलिए उन्हें अपनी मांगें मनवाने या सरकार पर दबाव बनाने के लिए कोई और अभिनव तरीका अपनाना चाहिए। नीति आयोग की हालिया रिपोर्ट यह जानने के लिए काफी है कि उत्तर भारतीय प्रदेशों में चिकित्सा सुविधाओं की स्थिति कितनी दयनीय है। ऐसे में, केंद्र व राज्य सरकारों को अतिरिक्त सक्रियता दिखानी होगी, ताकि इस क्षेत्र के संसाधनों की कमी दूर की जा सके और जो मानव संसाधन अभी उपलब्ध हैं, उनमें कोई असंतोष न पैदा हो। व्यापक जनहित में दोनों पक्षों को एक ऐसा ढांचा विकसित करना होगा, ताकि शिकायतें सड़क पर न पहुंचें।
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