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रामराज्य में न तो कोई दरिद्र था, न कोई दुखी था और न ही कोई दीनता से ग्रस्त था। यदि सामाजिक दृष्टि से देखें तो केवट सबसे नीचे या पीछे की पंक्ति का व्यक्ति था, परंतु भगवान ने जबसे उसे अपना लिया तबसे वह विश्व का भूषण हो गया। उसने स्वयं भरत जी से कहा कि 'राम कीन्ह आपन जबही तें। भयउं भुवन भूषन तबही तें।।Ó सबसे पीछे वाला सबसे आगे और शिरोमणि हो गया। केवट की इस प्रगति पर सब गदगद थे। यही है रामराज्य, जब बड़ा छोटा न कहलाए और छोटा छोटा न कहलाए। यही समता एवं समानता का शिखर है। 
केवट राम को पाने के पश्चात कहता है कि 'नाथ आज मैं काह न पावा। मिटे दोष, दुख, दारिद दावा।।Ó अर्थात प्रभु आपने मेरा दोष समाप्त कर दिया। मैं आपके वनवास के संदर्भ में माता कैकेयी को कारण रूप से दोषी मान रहा था। गहराई से देखा जाए तो पर-दोष दर्शन ही व्यक्ति का सबसे बड़ा दोष होता है। मेरा यह दोष लक्ष्मण भैया ने अपने उपदेश से दूर कर दिया। जीवन में दुख का सबसे बड़ा कारण होता है कि जब व्यक्ति अपने सुख और दुख को दूसरे से जोड़कर अनुभव करता है। वास्तव में सुख और दुख हमें कोई देता नहीं है, अपितु हम स्वयं लेते हैं। आपसे मिलकर मुङो पता चल गया कि दुख और सुख वास्तव में हैं क्या? आपका मिलना ही सबसे बड़ा सुख और आपसे बिछुडऩा ही सबसे बड़ा दुख है तो आपने मेरे जीवन से दुख को भी निकाल फेंका। रही बात दरिद्रता की तो किसी के पास धन न होना दरिद्रता नहीं है। दरिद्र तो वास्तव में वह है जो पाने के बाद भी कभी संतुष्ट नहीं है। केवट ने आगे कहा कि महाराज आपने मेरे जीवन से दोष, दुख और दरिद्रता का समूलोच्छेदन कर दिया। अब इसके बाद मुङो क्या पाना है? पूर्ण को पाने के बाद भी यदि पाने की इच्छा बनी रही तो वह तो अपूर्ण को पाने की होगी! वस्तुत: रामराज्य की व्याख्या को पूर्णता तो केवट ने ही दी, जिसको सुनकर भगवान राम उन्मुक्त होकर हंसने लगे।