विज्ञान की एक खबर या उसके प्रचार ने पूरी दुनिया को अचंभित कर दिया। ऐसा लगा, मानो चीन ने कृत्रिम सूरज बना लिया हो, इसे प्रचारित भी ऐसे ही किया गया। परमाणु मिश्रण जिसे प्लाज्मा भी कहा जा रहा है, के सहारे सूरज से पांच गुना तापमान को 17 मिनट से अधिक समय तक बनाए रखकर विश्व रिकॉर्ड का दावा किया गया है। चीन से पहले फ्रांस ने यह प्रयोग साल 2003 में किया था, जिसमें लगभग इतने ही तापमान को 390 सेकंड तक कायम रखा गया था। पिछले वर्ष मई में चीन ने एक छोटा प्रयोग किया था और इतने ही तापमान को 101 सेकंड तक कायम रखा था। चूंकि इन दिनों चीन की पूरी कोशिश खुद को सुपर पावर के रूप में स्थापित करने की है, इसलिए वह हर क्षेत्र में रिकॉर्ड बनाने के जुनून के साथ जुटा हुआ है। बेशक, पिछले वर्षों में चीन की वैज्ञानिक तरक्की काबिलेगौर है, लेकिन उसके प्रयोगों को अमेरिका या यूरोप की तरह विश्वसनीयता हासिल नहीं है। चीन को विश्वसनीयता बढ़ाने के लिए कई कदम उठाने पड़ेंगे। बहरहाल, ऐसे प्रयोग को दूसरा सूरज या कृत्रिम सूरज बनाने का नाम देना बिल्कुल गलत है। प्रयोग की प्रवृत्ति भले सूरज से थोड़ी मिलती-जुलती हो, लेकिन आकार-प्रकार में इस प्रयोग का सूरज से दूर-दूर तक कोई मुकाबला नहीं है। हम दूर-दूर तक भविष्य में भी कोई ऐसा कृत्रिम सूरज बनाने नहीं जा रहे हैं, जिसे आसमान पर सजा दिया जाए और जिससे पूरी दुनिया लाभान्वित हो। अत: अव्वल तो वैज्ञानिकों को अतार्किक दावों या नामकरण से बचना चाहिए और ऐसे प्रयोगों की वास्तविक व्यावहारिकता को परखना चाहिए। तो फिर फ्रांस या चीन में हुए प्रयोग के क्या मायने हैं? चाइनीज अकादमी ऑफ साइंसेज के इंस्टीट्यूट ऑफ प्लाज्मा फिजिक्स के एक शोधकर्ता गोंग जियानजू ने अपने एक बयान में कहा है कि हालिया अभियान एक फ्यूजन रिएक्टर चलाने की दिशा में ठोस वैज्ञानिक और प्रयोगात्मक नींव रखता है। वास्तव में वैज्ञानिक परमाणु संलयन की शक्ति का दोहन करने की कोशिश कर रहे हैं। यह ठीक वैसी ही वैज्ञानिक प्रक्रिया है, जिससे तारे 70-70 साल तक चमकते या जलते रहते हैं। मोटे तौर पर अगर समझा जाए, तो यह प्रयोग परमाणु ऊर्जा का ही अगला संस्करण है। ऐसे प्रयोग के माध्यम से कोशिश हो रही है कि ज्यादा से ज्यादा ऊर्जा बनाई जाए। चूंकि ऐसे प्रयोग या उद्यम से स्वच्छ ऊर्जा हासिल होगी, इसलिए इसका महत्व खास हो जाता है। इस ढंग से अगर ऊर्जा का निर्माण हो, तो रेडियोधर्मी कचरे के उत्पादन से भी बचा जा सकता है। बदलते समय के साथ ज्यादा से ज्यादा स्वच्छ ऊर्जा की जरूरत बढ़ती चली जा रही है, लेकिन वास्तव में ऐसे प्रयोग को व्यावहारिक बनाने की जरूरत है। फायदा तब है, जब इस सपने को जमीन पर उतारा जाए। इसमें कोई शक नहीं कि दुनिया प्रकृति अनुकूल स्वच्छ ऊर्जा की तलाश में है, लेकिन विकसित होने का दावा करने वाले देशों के मन में क्या चल रहा है? दुनिया के विशाल देश अगर ईंधन के रूप में तेल या कोयले की बचत कर सकते हैं और ऐसे प्लाज्मा प्लांटों से पर्याप्त ऊर्जा पा सकते हैं, तो उनका स्वागत है, लेकिन हकीकत यह है कि ऊर्जा की यह मंजिल अभी दूर है। इस प्रक्रिया से स्थाई ताप उत्सर्जन अभी कोशिश के दौर में ही है।
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