मुंबई। जीवन में एक बार आकांक्षा और आग्रह बन जाता है कि मुझे यह चीज अच्छी लगती है तो इसे किसी भी तरीके से प्राप्त करनी ही है। उसमें यदि पुण्य तेज है तो जो चीज धारी है। वह मिलकर ही रहती है यदि पुण्य साथ न दिया तो निष्फलता मिलती है। निष्फलता मिलने के बावजूद मन में उस चीज की याद बनी रहती है। एक भौतिक चीज की प्राप्ति के लिए हम बेकार कोशिश करते है इसी तरह किसी अच्छे गुणों की प्राप्ति के लिए जीव में आदर्श बनाए तो? चाहे ये गुण मिले के ना मिले परंतु उसका अनुबंध तो मन में फिरता रहता है।
मुंबई में बिराजित प्रखर प्रवचनकार, संत मनीषि, प्रसिद्ध जैनाचार्य प. पू. राजयश सूरीश्वरजी महाराजा श्रोताजनों को संबोधित करते हुए फरमाते हैं एक युवान आकर मुझे कहने लगा। साहेब। मुझे आशीर्वाद दो। मुझे एक बंगला बनवाना है। अभी जिस घर में तुम रहते हो वह घर छोटा है नहि साहेब, चार बेडरूम कीचन, हॉल है। तो क्यों नया बंगला बनवाना है? इन्वेस्टमेंट करने के लिए? नहीं तो, मेरे काका के वहां बडा बंगला है और काका का लड़का जब मुझे कहता है, आप मेरे बंगले आना तब ये शब्द मुझे चुबते है। क्यों? साहेब, हमारा बंगला नहीं है इसीलिए हमें ऐसा कहता है ना?
आशीर्वाद दो साहेब, मैं भी इससे बडा बंगला बनाऊंगा फिर रोब से उसे बुलाऊंगा। इस युवान ने 90 बरस नौकरी करके एक दिन काका को कहा, चलो। मेरे बंगले आपके बंगले को टक्कर मारे ऐसा भव्य बंगला मैंने बनवाया है। तभी वहां बैठा हुआ मामा का लड़का बोला, अरे! तुम्हारा बंगला कहां एवं मेरा बंगला कहां? मेरे बंगले के आगे तो तुम्हारा बंगला एकदम हल्का लगना है। चल! एक बार मेरे बंगलेको देखने?
वह युवान वहीं पर जोरजोर से रोने लगा। मैं दूसरों को टक्कर मारकर आगे निकलने का प्रयत्न करता हूं तो दूसरे मुझे ओवर टेक करके आगे दौड़ धाम करके मैं थक गया हूं। शांति मिलाना चाहता हूं परंतु शांति तो मुझसे दूर-दूर भागती जाती है।
भाई! तुझे अभी तक शांति नहीं मिली शांति तो तुम्हारे अंदर ही शांति से बैठी हुई है। हम तो आशा एवं इच्छा की रेस लगा रहे है। एक इच्छा पूरी नहीं हुई कि दूसरी इच्छा लाईन लगाकर बैठी है। इस तरह हरेक इच्छा पूरी करने जाए तो हमारी जिंदगी यूं ही पूरी हो जाएगी। यह तृष्णा तो ऐसी है कि आप उसे कुछ भी दो उसे तृप्ति नहीं होती है।
एक संत की बात आती है। संत भिक्षा के लिए जा रहे थे। सामने किसी को देखते ही उन्होंने तुरंत अपना पा आगे किया। परंतु सामने तो बादसाह खड़ा था। बादशाह ने कहा, आज अमूल्य अवसर है आप जो मांगना चाहते हो सो मांगो। सब कुछ मिलेगा संत ने कहा, यह भिक्षा पात्र भरकर दो। जरा भी कम न होना चाहिए। बादशाह ने तुरंत ही अपने सेवक को आदेश करके सोना महोर की थैली मंगवाई। फिर किया। पंतु पात्र भरा नहीं। बादशाह ने फिर से दूसरी थैली मंगवाई पात्र भरते गए फिर भी पात्र खाली रहता था। बादशाह का अभियान बढ़ गया। कहने लगे चाहे मेरा खजाना खाली क्यों न हो मुझे तो पात्र भरना ही है बादशाह के पास बुद्धिशाली मंत्री बैठे थे। मंत्री ने कहा! बादशाह! को अपनी भूल समझ में आई। अहंकार नष्ट होने ही संत के चरणों में गिर पड़े। क्षमा याचना की। संत का काम सिद्ध हो गया। उन्होंने भिक्षा पात्र को उल्टा किया उसमें से जितनी सोना महोर डाली थी उतनी पूरी बहार आई।
बादशाह ने पात्र का रहस्य पूछा? यह पात्र किस चीज का बना है? संत ने कहा यह कोई साधारण पात्र नहीं है। यह पात्र सिर्फ मानव की तृष्णा से भरी हुई खोपड़ी से बनी है। तृष्णा कभी तृप्त नहीं होती है। अपना मन तृष्णा से भरपूर है। आशा, इच्छा-अपेक्षा जैसे शब्दों के द्वारा यह तृष्णा मनुष्य को जीवन भर भटकाती है। इलीएि यदि आपको जीवन में शांति चाहिए तो इच्छा का आप जितना कम रखोंगे उतनी ज्यादा शांति मिलेगी।
संतोष गुण को जीवन में मिलाकर शीघ्र आत्मा से परमात्मा बनो।
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