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अनिल त्रिगुणायत पिछले कुछ समय से ऑस्ट्रेलिया के साथ हमारे संबंध बहुत प्रगाढ़ हुए हैं. दोनों देशों के बीच राजनीतिक साझेदारी का निरंतर विस्तार हो रहा है। इस पृष्ठभूमि में प्रधानमंत्री मोदी और ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन की शिखर वार्ता का महत्व बढ़ जाता है। दोनों नेताओं ने स्वाभाविक रूप से यूक्रेन प्रकरण पर चर्चा की है। प्रधानमंत्री मॉरिसन ने खुले तौर पर रूस-यूक्रेन संकट पर भारतीय रुख का समर्थन किया है और कहा है कि वे इसका सम्मान करते हैं। ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका सुरक्षा और रणनीतिक साझेदार हैं और भू-राजनीतिक मामलों में उनकी राय समान होती है। ऐसे में उनका यह कहना कि वे भारत के रुख को समझते हैं, बड़ी बात है। रूस और जापान के बाद ऑस्ट्रेलिया तीसरा ऐसा देश है, जिसके साथ हमने वार्षिक शिखर सम्मेलन करने का समझौता किया है। रणनीतिक सहकार को बढ़ाने के लिए एक विशिष्ट केंद्र खोलने पर सहमति बनी है। अहम तकनीक के क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने पर जोर तथा एक-दूसरे के शैक्षणिक संस्थानों की डिग्रियों को मान्यता देने का निर्णय भी उल्लेखनीय है। भारतीय प्रवासियों की सुविधाएं बेहतर करने के लिए 28 मिलियन डॉलर के आवंटन तथा उनकी समस्याओं के समाधान की विशेष व्यवस्था करने की घोषणा भी महत्वपूर्ण है। कुछ साल पहले वहां भारतीय लोगों के विरुद्ध नस्लभेद और नफरत आधारित अपराधों की संख्या बढ़ गयी थी तथा दोनों देशों के संबंधों में खटास आ गयी थी। उससे पहले जब भारत ने परमाणु परीक्षण किया था, तो ऑस्ट्रेलिया ने भी प्रतिबंध लगाया था। उस दौर से आज द्विपक्षीय संबंधों में व्यापक परिवर्तन आया है। आर्थिक और वित्तीय भागीदारी को ठोस आधार देने के लिए भी वार्षिक बैठक करने पर सहमति बनी है। अत्याधुनिक तकनीक और रेयर अर्थ मैटिरियल के मामले में ऑस्ट्रेलिया बहुत समृद्ध है। इन क्षेत्रों में भी लेन-देन को प्रमुखता दी गयी है। मेरा मानना है कि दोनों प्रधानमंत्रियों की बातचीत में द्विपक्षीय संबंधों को नया आयाम दिया गया है। प्रधानमंत्री मॉरिसन प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व और नेतृत्व के प्रशंसक हैं। दोनों नेताओं के व्यक्तिगत समीकरण से भी परस्पर साझेदारी को आधार मिला है। ऑस्ट्रेलिया और जापान क्वाड समूह के अहम सदस्य हैं तथा उनके आर्थिक हित भी भारत से जुड़े हैं। महामारी की रोकथाम के लिए हिंद-प्रशांत क्षेत्र के देशों को वैक्सीन आपूर्ति करने के बारे में पहले ही फैसला किया जा चुका है, जिसे हालिया बैठकों से मजबूती मिलने की उम्मीद है। ऑस्ट्रेलिया की ओर से यह कोशिश रही है कि दोनों देशों के बीच जो कठिन मसले हैं या विचारों की भिन्नता है, उन्हें अनावश्यक तूल न दिया जाए तथा सकारात्मक सहयोग को केंद्र में रखा जाए। इस संदर्भ में पिछले दिनों हुए जापान के प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा के भारत दौरे के महत्व को भी रेखांकित किया जाना चाहिए। मेरी समझ से भारत और जापान के बीच एक विशिष्ट सहभागिता है। उनके साथ हमारा रणनीतिक संबंध नहीं है। वह रूस के बाद दूसरा ऐसा देश है, जिसके साथ हमारा वार्षिक शिखर बैठक करने का समझौता है। वर्ष 2019 में तत्कालीन प्रधानमंत्री शिंजो आबे को इस आयोजन के लिए भारत आना था, पर उसे स्थानीय कारणों से स्थगित करना पड़ा था। उससे बाद महामारी की वजह से दो साल बैठकें नहीं हो सकीं। प्रधानमंत्री किशिदा की किसी देश में यह पहली द्विपक्षीय यात्रा है। इससे स्पष्ट होता है कि जापान और भारत का एक-दूसरे के लिए कितना महत्व है। जापान दुनिया के बड़े निवेशक देशों में है। भारत में अन्य निवेशों के अलावा अंडमान-निकोबार और पूर्वोत्तर में उनके सहयोग से बड़ी परियोजनाएं चल रही हैं। श्रीलंका में बंदरगाह से जुड़ी एक परियोजना में भी दोनों देश भागीदार हैं। एशिया-अफ्रीका गलियारा बनाने की दिशा में भी विभिन्न देशों के साथ लगातार बातचीत हो रही है। इस दौरे में परस्पर संबंधों को ठोस बनाते हुए टू प्लस टू व्यवस्था की गयी है, जिसके तहत दोनों देशों के मंत्रियों की नियमित बैठक हुआ करेगी। पहले ऐसी बैठकें सचिव स्तर पर होती थीं। प्रधानमंत्री किशिदा के दौरे की एक बहुत बड़ी बात यह रही है कि उन्होंने भारत विरोधी आतंकी घटनाओं के प्रायोजक के रूप में स्पष्ट रूप से पाकिस्तान का नाम लिया और पाकिस्तान से इस संबंध में कार्रवाई करने को कहा। इस प्रकार आतंक-निरोधक प्रयास में जापान भारत का बड़ा समर्थन कर रहा है। उन्होंने आगामी पांच सालों में 42 अरब डॉलर का निवेश करने की घोषणा भी की है। पहले से ही डिजिटल कनेक्टिविटी, बड़े औद्योगिक गलियारों और द्रुत गति की रेल परियोजनाओं का काम जापानी सहयोग से चल रहा है। जापान अपनी अर्थव्यवस्था और आपूर्ति शृंखला में भारत को मूल्यवान सहयोगी मानता है। दोनों प्रधानमंत्रियों ने यूक्रेन पर भी बात की है और अलग-अलग राय के बावजूद एक-दूसरे के रुख को समझा है। भारत की तरह ऑस्ट्रेलिया और जापान भी यह मानते हैं कि चीन बड़ा खतरा है तथा हिंद-प्रशांत क्षेत्र में दादागिरी ठीक नहीं है। तीनों देश चाहते हैं कि इस क्षेत्र में सुरक्षा और स्थिरता बहाल रहे। इन देशों के पास संसाधन और वित्त हैं, इसलिए भारत के लिए भी इनका बड़ा महत्व है। हरित ऊर्जा और हरित गलियारे जैसे क्षेत्रों में वे काफी विकसित हैं। ये देश भारत को एक विशिष्ट लोकतंत्र तो मानते ही हैं, साथ ही वे इसे बड़ा अवसर भी मानते हैं। क्वाड समूह की पिछली शिखर बैठक में भारत ने यूक्रेन को लेकर अपनी राय स्पष्ट रूप से रखी थी। अब अमेरिकी प्रतिक्रिया चाहे जो हो, उसे हमारे रुख के बारे में पता है और इस संबंध में भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर और अमेरिकी विदेश सचिव एंथनी ब्लिंकेन के बीच बातचीत भी हुई है। बीते दिनों बाइडेन प्रशासन की अहम अधिकारी विक्टोरिया नुलांड भी आयी थीं। भारत का रुख तो उसकी नीतियों और सिद्धांतों के अनुरूप है। भारत शांति, संवाद, सुरक्षा, क्षेत्रीय अखंडता और कूटनीति का हमेशा पक्षधर रहा है। यही रुख यूक्रेन मसले पर भी है। जो देश यह चाहते हैं कि हम रूस की निंदा करें और उससे नाता तोड़ लें, उन्हें यह समझना चाहिए कि ऐसा करने से किसी का भला नहीं होगा। भारत को अपनी शक्ति व संभावना बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।