
जट भी आ गया और क्रेडिट पॉलिसी भी। चारों तरफ धूम मची है कि वित्त मंत्री ने हिम्मत दिखाई, लोकलुभावन एलान करने के बजाय बड़े सुधारों पर जोर दिया। इससे आर्थिक तरक्की रफ्तार पकड़ेगी। रिजर्व बैंक ने भी इस नीति पर मोहर लगा दी है, और यह एलान किया है कि महंगाई फिलहाल काबू में है और आगे भी काबू में रहने वाली है। लेकिन क्या सचमुच ऐसा ही है? रिजर्व बैंक की क्रेडिट पॉलिसी में कहा गया कि नवंबर में जो खुदरा महंगाई का आंकड़ा 6.9 प्रतिशत था, वह दिसंबर में गिरकर 4.59 प्रतिशत हो चुका था। इसमें बड़ी भूमिका रही खाने-पीने की चीजों की कीमतों में आई कमी की। खाने-पीने की चीजों की महंगाई नवंबर के 9.5 फीसदी से गिरकर दिसंबर में 3.41 प्रतिशत पर पहुंच चुकी थी। मगर इसकी सबसे बड़ी वजह मौसम है, क्योंकि हम सब जानते हैं कि किस मौसम में सब्जी की कीमत आसमान पर पहुंच जाती है और कब वह जमीन पर उतर आती है।
फिर भी, रिजर्व बैंक का अनुमान है कि जनवरी से मार्च तक महंगाई दर 5.4 फीसदी रहेगी, अप्रैल से सितंबर तक यह 5.2 फीसदी से पांच फीसदी के बीच होगी, और सितंबर के बाद, यानी अक्तूबर, नवंबर, दिसंबर में घटकर 4.3 प्रतिशत ही रह जाएगी। इसी भरोसे रिजर्व बैंक को लगता है कि ब्याज दरों में और कटौती की जरूरत नहीं है और वह बैंकों को नकदी रखने में दी गई छूट भी धीरे-धीरे वापस ले सकता है। लेकिन रिजर्व बैंक ने इस पॉलिसी से पहले देश के अलग-अलग हिस्सों में जो सर्वे किया है, उसमें शामिल परिवारों को महंगाई बढऩे का डर सता रहा है। रिजर्व बैंक अब हर दो महीने में ऐसा एक सर्वे करता है। इसमें यही पता लगाने की कोशिश होती है कि परिवार की शॉपिंग लिस्ट को देखते हुए इन परिवारों की महंगाई के बारे में क्या उम्मीदें या आशंकाएं हैं? इस बार के सर्वे में पिछले ऐसे सर्वेक्षणों के मुकाबले लोगों के मन में अनिश्चितता ज्यादा दिखाई पड़ी। अर्थ-नीति के तमाम विद्वान भी बजट को देखने के बाद कह चुके हैं कि अब हमें महंगाई के एक तगड़े झटके के लिए तैयार रहना चाहिए। लेकिन उस तर्क पर जाने से पहले किसी भी आम आदमी के दिमाग में आने वाला सबसे बड़ा सवाल है, पेट्रोल और डीजल के दाम। आजादी के बाद कई दशक तक सरकार डीजल पर भारी सब्सिडी देती रही, क्योंकि यह माना जाता है कि डीजल के दाम बढऩे से महंगाई का बढऩा लाजिमी है। आश्चर्य की बात यह है कि पिछले दिनों पेट्रोल और डीजल के दाम रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंचने के बावजूद इस पर कोई सुगबुगाहट तक सुनाई नहीं पड़ी। और ऐसा कब? जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के भाव करीब 55 डॉलर प्रति बैरल हैं। जून 2008 में यही भाव 166 डॉलर तक चढ़ा था और उसके बाद भी कई साल 100 से 120 डॉलर के बीच झूलता रहा। जून 2014 में तो यह 115 डॉलर के करीब था और तब से इसमें लगातार गिरावट देखी गई। लेकिन भारत के बाजार में क्या हुआ? जून 2008 में जब कच्चा तेल 166 डॉलर का था, तब भारत में पेट्रोल 55.04 रुपये लीटर मिल रहा था। (अलग-अलग शहरों के भाव अलग हो सकते हैं।) और आज जब कच्चा तेल 55 डॉलर का एक बैरल है, तब मुंबई में पेट्रोल का दाम है 93.44 रुपये।
2014 में जब कच्चे तेल के दाम गिरने लगे, तब यह उम्मीद की जा रही थी कि सरकारी तेल कंपनियां इसका फायदा ग्राहकों तक पहुंचाएंगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। सरकार ने तय किया कि दाम गिरने के साथ-साथ वह इन पर एक्साइज ड्यूटी बढ़ाती चलेगी। मतलब दाम जितना कम हुआ, उसका फायदा सरकार की झोली में चला गया। भारत में सरकारी तेल कंपनी इंडियन ऑयल की वेबसाइट पर साफ-साफ लिखा होता है कि आप जो पेट्रोल खरीद रहे हैं, उसमें से कितना हिस्सा कहां जा रहा है। इसके हिसाब से 1 फरवरी को कंपनी दिल्ली में 86.30 रुपये का एक लीटर पेट्रोल बेच रही थी। इसमें से कंपनी का दाम और भाड़ा जोड़कर डीलर तक यह 29.71 रुपये में पहुंचा। 32.98 एक्साइज ड्यूटी और डीलर का कमीशन 3.69 रुपये। अब इस पर वैट लगा 19.92 रुपये, जो राज्य सरकार को मिलता है। यानी 30 रुपये से कम के पेट्रोल पर केंद्र सरकार करीब 33 रुपये और राज्य सरकारें करीब 20 रुपये टैक्स वसूल रही हैं। शुरू में केंद्र सरकार ने तर्क दिया था कि पिछले वर्षों में सरकार ने काफी सब्सिडी दी है और यह डर भी है कि आगे कच्चे तेल का दाम फिर बढ़ सकता है, इसीलिए सरकार दाम कम करने के बजाय टैक्स लगाकर एक रिजर्व फंड बना रही है, ताकि आगे चलकर दाम बढ़े, तो उपभोक्ताओं पर बोझ न पड़े। लेकिन अब जब कोरोना से मार खाए उपभोक्ताओं को राहत की जरूरत है, तो सरकार का हाल यह है कि एक्साइज ड्यूटी के खाते में कुल 3,35,000 करोड़ रुपये की कमाई में से 2,80,000 करोड़ रुपये से ज्यादा की रकम पेट्रोल-डीजल के खाते ही चढ़ी हुई है। फिर, डीजल और पेट्रोल पर नया सेस या अधिभार लगने से भी लोग आशंकित हैं। हालांकि, सरकार ने कहा है कि इसका असर खरीदारों पर नहीं पड़ेगा। लेकिन कब तक नहीं पड़ेगा, यह सवाल बना हुआ है।
डीजल और पेट्रोल से महंगाई बढऩे के साथ-साथ आर्थिक विशेषज्ञों को दूसरी चिंताएं भी सता रही हैं। एक, सेवाओं के दाम बढऩे का डर, क्योंकि जैसे-जैसे बाजार में मांग बढ़ेगी, तरह-तरह के ऑपरेटरों में अपनी फीस या रेट बढ़ाने की हिम्मत आएगी। और दूसरी, सरकारी खर्च और कर्ज में आनेवाली बढ़ोतरी से। शेयर बाजार के दिग्गजों का कहना है कि सरकार ने इस बजट में एक बड़ा दांव लगाया है, जिसके लिए बहुत पैसे की जरूरत है। सरकार यह रकम बाजार से उठाएगी, तो कर्ज का महंगा होना, यानी उस पर ब्याज बढऩे का डर है। दूसरी तरफ अमेरिका जमकर नोट छाप रहा है, इसलिए महंगाई एक बड़ी मुसीबत बन सकती है। ऐसे में, सरकार के सामने बड़ा सवाल यह है कि क्या वह देश की तरक्की को बहुत तेजी से इतना बढ़ा सकती है कि लोगों को काम मिल जाए, उनकी आमदनी बढ़ जाए और वे थोड़ी-बहुत महंगाई बढऩे की फिक्र से मुतमइन रहें? या फिर, कुछ ही समय बाद लोग विकास की चिंता छोड़कर 'हाय महंगाईÓ का नारा लगाते नजर आएंगे?