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संवेदनशीलता विशिष्ट मानवीय गुण है जो भावुकता में अभिव्यक्त होता है। यह नैसर्गिक है। इसे सप्रयास अर्जित नहीं किया जा सकता। कभी-कभी अनायास अंतर्मन में आत्मभाव के मेघ उठते हैं। चित्त मधुमयता से भर जाता है, लेकिन ऐसा अक्सर नहीं होता है। राजनीतिक कार्यकर्ता के साथ तो प्राय: नहीं ही होता है। बीते सप्ताह राज्यसभा में आत्मीय भावुकता का प्रेमपूर्ण दृश्य दिखा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राज्यसभा में वरिष्ठ कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद की विदाई के अवसर पर बोलते हुए भावुक हो गए। रोए और फफके। सदन विस्मित और आश्चर्यचकित था। मोदी संवेदनशील हैं। पहली बार लोकसभा पहुंचे तो संसद के प्रति आस्था व्यक्त करते हुए संसद भवन की सीढिय़ों पर उसे साष्टांग प्रणाम किया। देश में लंबे अर्से से सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष के मध्य तनातनी है। आत्मभाव की अभिव्यक्ति दुर्लभ है। संसदीय परंपरा के लिए यह घटना मील का पत्थर है। इसकी राजनीतिक व्याख्या भी संभव है, लेकिन इसने देश के प्रत्येक राजनीतिक कार्यकर्ता के लिए सुखद संदेश दिया है।
सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच वैचारिक मतभेद स्वाभाविक हैं, परंतु वे परस्पर शत्रु नहीं होते, लेकिन हाल में राजनीतिक विमर्श की भाषा शत्रुतापूर्ण हो गई है। चैनलों व अन्य मंचों पर वे दिन भर शत्रु की भाषा बोलते हैं। विचारधाराओं पर बहस नहीं होती। व्यक्तिगत आक्षेप और उत्तेजना राजनीतिक विमर्श की भाषा है। समूचा राजनीतिक तंत्र तनाव की स्थिति में है। बंगाल इसका ताजा उदाहरण है। वाद-प्रतिवाद वहां गाली, गोली और हिंसा तक पहुंच गया है। ऐसी ही स्थिति अन्य स्थानों पर भी है। दलों की निचली इकाइयों तक परस्पर शत्रु भाव का विस्तार हो गया है। उन्माद संस्थागत हो रहा है। थोड़ी सी भीड़ ही विस्फोटक उत्तेजना के लिए काफी है। अराजकता या हिंसा स्थायी भाव बन रही है। कार्यकर्ता उस पर गर्व करने लगे हैं।लोकतंत्र आत्मीयता और संवाद से चलता है, लेकिन सदनों के भीतर होने वाले संवाद यदाकदा बाधित रहते हैं। नए कृषि कानूनों पर भी युद्ध जैसी स्थिति है। सरकार आरंभ से वार्ता के लिए तैयार रही है, मगर दूसरा पक्ष उदासीन है। उलटे शत्रु देश को लाभ पहुंचाने वाली टीका-टिप्पणियां हुई हैं जबकि राष्ट्रीय प्रश्नों पर सभी दलों को एक होना चाहिए। कोरोना महामारी में कुशल प्रबंधन व प्रधानमंत्री के नेतृत्व की प्रशंसा विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी की है, लेकिन मोदी के प्रति शत्रुभाव रखने के कारण ऐसी उपलब्धियां नकार दी गई हैं। इस सबका मूल कारण संवादहीनता है और संवादहीनता का मूल कारण परस्पर शत्रुभाव। चुनाव जनतंत्र का मुख्य संवैधानिक उत्सव होता है। 15-20 वर्ष पहले तक चुनाव के दिनों में सभी दलों में आक्रामकता बढ़ जाती थी। अप्रिय नारेबाजी भी होती थी। कहीं-कहीं भिड़ंत भी होती थी। बाकी समय माहौल शांत रहता था। चुनाव आयोग बीच में आ गया तो चुनाव के दिनों का तनाव घट गया। अब बारह महीने चुनाव जैसा तनाव है। कलह है। अपशब्द हैं। एक दूसरे के प्रति सम्मान का अभाव है। आरोप प्रत्यारोप हैं। आरोप भी तथ्यहीन हैं। इनसे समग्र राजनीतिक वातावरण दूषित रहता है।भारत का हर नागरिक समान है। उनकी उपलब्धियां निजी परिश्रम व राजव्यवस्था द्वारा उपलब्ध अवसरों का प्रतिफल हैं, पर जाति अलग तथ्य है। जाति जन्म के साथ मिलती है। इससे त्यागपत्र संभव नहीं है। जाति राष्ट्रीय एकता में बाधक है। जाति आधारित राजनीतिक विभाजन से तनाव बढ़ता है। राजनीति में इसका दुरुपयोग जारी है। मोदी जी ने परिवारवाद-जातिवाद पर कई बार खुलकर प्रहार किया है। प्रथमद्रष्टया सभी दल जाति के विरोधी दिखाई पड़ते हैं, लेकिन इस पर राजनीति भी खूब करते हैं। जाति विभाजन राष्ट्रीय एकता का शत्रु है। समाज के प्रत्येक सदस्य के मन में समता और समरसता का भाव फैलाना श्रमसाध्य है और यह काम परस्पर शत्रु मानने वाले दलों के नेताओं द्वारा संभव नहीं है। दलों में आत्मीय भाव और संवाद बढ़ाने से ही समाधान होगा। संविधान की उद्देशिका में भारत के प्रत्येक नागरिक को हम 'भारत के लोगÓ कहा गया है, लेकिन अभी 'भारत के लोगÓ की संवैधानिक भावना का विकास नहीं हो पाया है। जाति अस्मिता, क्षेत्र अस्मिता, पंथ अस्मिता और भाषा अस्मिता हैं। ये समाज तोड़क हैं।
संसद और विधानमंडल भाग्यविधाता हैं, लेकिन यहां अब शोर और बाधाएं हैं। विपक्ष को बहस नहीं व्यवधान प्रिय लगता है। सदन में बहस होती तो देश को लाभ होता है। अब यहां कोई सुनने नहीं आता। इसलिए बहस में उत्तेजना स्वाभाविक है। संसदीय व्यवस्था को अब अग्नि स्नान की जरूरत है। संसद के समय का अधिकतम सदुपयोग करना सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों की जिम्मेदारी है। यह दोनों पक्षों के बीच आत्मीयता और अनौपचारिक प्रेम भाव में ही संभव है।
भारत प्रत्येक क्षेत्र में प्रतिष्ठित हो रहा है, परंतु राजनीतिक विभाजन का प्रभाव आम जनों पर भी पड़ रहा है। यह समय भारत के लिए चुनौतीपूर्ण है। बराक ओबामा ने अमेरिकी राष्ट्रपति बनने के बाद एक भाषण में कहा था, 'यह समय अमेरिका के लिए महत्वपूर्ण है। अमेरिका युवाओं, वृद्धों का है। धनी और गरीबों का ब्यूरोक्रेट और रिपब्लिकन का श्वेत और अश्वेत का भी है। लातिनों, एशियाई और अन्य विदेशी अमेरिकियों का है। हम राज्यों का संकलन नहीं। हम अमेरिकी हैं, अमेरिकी ही रहेंगे।Ó अमेरिका वास्तव में राज्यों का संकलन है और भारत स्वयं बनाए गए राज्यों का संघ, लेकिन भारत के राज्य मनमाना आचरण करते हैं। जिस विषय पर कानून बनाने का उनको अधिकार नहीं उस पर भी कानून बना डाल रहे हैं। संसदीय कानूनों को मानने से इन्कार करना संविधान विरोधी आचरण है। प्रधानमंत्री मोदी सबको साथ लेकर सरकार चला रहे हैं। उन्होंने कोरोना सहित तमाम अवसरों पर राज्यों के मुख्यमंत्रियों से परामर्श लिया है, लेकिन मोदी को शत्रु मानने वाले विपक्ष ने व्यक्तिगत हमले को ही विपक्ष का संवैधानिक कर्तव्य माना है। प्रधानमंत्री के भाषण का भाव सुस्पष्ट है, लेकिन सिसकियों के कारण बहुत कुछ अनकहा अनसुना रह गया है कि-हम भारत के लोग सत्तापक्ष और प्रतिपक्ष एक ही भारत माता के पुत्र हैं। हम उत्तर-दक्षिण-पूरब-पश्चिम एक हैं। मत पंथ की भिन्नता के बावजूद एक हैं। दल परस्पर शत्रु नहीं हैं। एक सामान्य मूल्य बोध के कारण सब अपने हैं। इस मूल्य बोध को विकसित करने का काम सभी वर्गों के पूर्वजों ने किया।
 परस्पर मिलकर रहना ही आत्मनिर्भर समृद्ध भारत की गारंटी है।