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सनातन धर्म में गोत्र का बहुत महत्व है। 'गोत्रÓ का शाब्दिक अर्थ तो बहुत व्यापक है। विद्वानों ने समय-समय पर इसकी यथोचित व्याख्या भी की है। 'गोÓ अर्थात् इन्द्रियां, वहीं 'त्रÓ से आशय है 'रक्षा करनाÓ, अत: गोत्र का एक अर्थ 'इन्द्रीय आघात से रक्षा करने वालेÓ भी होता है जिसका स्पष्ट संकेत 'ऋषिÓ की ओर है।
सामान्यत: 'गोत्रÓ को ऋषि परम्परा से संबंधित माना गया है। ब्राह्मणों के लिए तो 'गोत्रÓ विशेष रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि ब्राह्मण ऋषियों की संतान माने जाते हैं। अत: प्रत्येक ब्राह्मण का संबंध एक ऋषिकुल से होता है।
प्राचीनकाल में चार ऋषियों के नाम से गोत्र परंपरा प्रारंभ हुई। ये ऋषि हैं-अंगिरा, कश्यप, वशिष्ठ और भृगु हैं। कुछ समय उपरान्त जमदग्नि, अत्रि, विश्वामित्र और अगस्त्य भी इसमें जुड़ गए। व्यावहारिक रूप में 'गोत्रÓ से आशय पहचान से है। जो ब्राह्मणों के लिए उनके ऋषिकुल से होती है।
कालान्तर में जब वर्ण व्यवस्था ने जाति-व्यवस्था का रूप ले लिया तब यह पहचान स्थान व कर्म के साथ भी संबंधित हो गई। यही कारण है कि ब्राह्मणों के अतिरिक्त अन्य वर्गों के गोत्र अधिकांश उनके उद्गम स्थान या कर्मक्षेत्र से संबंधित होते हैं। 'गोत्रÓ के पीछे मुख्य भाव एकत्रीकरण का है किन्तु वर्तमान समय में आपसी प्रेम व सौहार्द की कमी के कारण गोत्र का महत्व भी धीरे-धीरे कम होकर केवल कर्मकाण्डी औपचारिकता तक ही सीमित रह गया है। ब्राह्मणों में जब किसी को अपने 'गोत्रÓ का ज्ञान नहीं होता तब वह 'कश्यपÓ गोत्र का उच्चारण करता है। ऐसा इसलिए होता क्योंकि कश्यप ऋषि के एक से अधिक विवाह हुए थे और उनके अनेक पुत्र थे। अनेक पुत्र होने के कारण ही ऐसे ब्राह्मणों को जिन्हें अपने 'गोत्रÓ का पता नहीं है 'कश्यपÓ ऋषि के ऋषिकुल से संबंधित मान लिया जाता है।