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निशिकांत ठाकुर
विश्व में वेदांत का झंडा फहराने वाले स्वमी विवेकानंद जैसे महापुरुष के गुरुदेव स्वामी रामकृष्ण परमहंस के विषय में कुछ लिखना ईश्वर में पूर्णत: समाहित होने जैसा है। एक महामानव का जीवन परिचय जानना और समझना कितना कठिन है, इसे मैंने इस बीच स्वामी विवेकानंद की पुस्तकों और परमहंस के जीवन पर लिखी कुछ पुस्तकें पढऩे का बाद महसूस किया। धन्य थे वे माता पिता जिनकी कोख से रामकृष्ण परमहंस जैसे महामानव ने जन्म लिया।
पिता खुदीराम चट्टोपाध्याय और माता चंद्रदेवी की कोख से 18 फरवरी 1836 में बंगाल के हुगली जिले के कमारपुरकुर गावं में रामकृष्ण का जन्म हुआ था। खुदीराम चट्टोपाध्याय के तीन पुत्रों में सबसे छोटे गजाधर चट्टोपाध्याय थे और इन्हीं गजाधर को आज दुनिया स्वामी रामकृष्ण परमहंस के नाम से जानती है। दरअसल, रामकृष्ण परमहंस को जानना भारतीय अध्यात्म को जानने जैसा है।
स्वामी जी बाल्यकाल से ही अत्यन्त नम्र स्वभाव के थे। वाणी बहुत ही मधुर और मनोहारिणी थी। इसी से अड़ोस-पड़ोस और गाँव के लोग उनसे बहुत प्रसन्न रहा करते थे और प्राय: अपने घरों में ले जाकर उन्हे भोजन कराया करते थे। उनका ध्यान कृष्ण चरित्र सुनने और उनकी लीला करने में बहुत लगता था। देव-पूजा में तो ऐसी श्रद्धा थी कि स्वत: पार्थिव पूजन किया करते थे और कभी-कभी भक्ति-भाव में तन्मय होकर अचेत हो जाते थे। समीपवर्ती अतिथिशाला में जाकर प्राय: अभ्यागतों की सेवा, परिचर्या किया करते थे।
सोलह वर्ष की अवस्था में स्वामीजी का यज्ञोपवीत हुआ और वे तभी पढऩे के लिए पाठशाला में भेजे गए। चित्त पढऩे में बिल्कुल नहीं लगता था। संस्कृत पाठशाला में पंडितों के व्यर्थ के नित्य प्रति के वाद-विवाद सुनकर घबड़ा गए और दु:खी होकर एक दिन बड़े भाई से स्पष्ट बोले–"भाई, पढऩे-लिखने से क्या होगा? इस पढऩे-लिखने का उद्देश्य तो केवल धन-धान्य पैदा करना है। मैं तो वह विद्या पढऩा चाहता हूँ, जो मुझे परमात्मा की शरण में पहुँचा दे।" ऐसा कहकर उस दिन से पढऩा छोड़ दिया। यदि उनकी हस्तलिखित रामायण न मिलती, तब तो लोगों को यही निश्चय न होता कि स्वामी जी बिल्कुल ही पढ़े-लिखे थे या नहीं।
स्वामी रामकृष्ण परमहंस का जीवन कलकत्ता की परिधि के आस पास घूमता रहा, लेकिन उनकी ज्योति से विश्व आध्यात्मिक रूप से रोशन होता रहा। एक अवतारी पुरुष को उस काल के कई लोगों ने अनेक रूपों में देखा और मानसिक रूप से अस्वस्थ भी कहा, लेकिन जानने वाले जानते थे कि यह भारतीय धर्म मर्मज्ञ एक दिन भारतीय वेदांत के ध्वज को उठाकर सर्वोच्च ऊंचाई पर ले जाएगा। वही हुआ भी। स्कूली शिक्षा से मन भर जाने के बाद निरंतर संतुष्टि की तलाश में वह घूमते रहे।
उसी दौर में कलकत्ता में एक रानी रासमणि रहती थीं। वह शूद्र थीं, लेकिन अपनी क्षमता, बुद्धिमानी, साहस और धर्मनिष्ठता के लिए जानी जाती थीं। 1847 में उन्होंने दक्षिणेश्वर में 20 एकड़ जमीन खरीदी, जहां काली मंदिर बनवाया।उनका कालिका ही इष्ट था। गदाधर अपने बड़े भाई रामकुमार के साथ एक दिन काली मंदिर आए। रामकुमार को मंदिर का मुख्य पुजारी नियुक्त किया गया। गदाधर को मंदिर रास नहीं आया , लेकिन फिर उन्हे जल्द ही वहां अच्छा लगने लगा।
गदाधर का फुफेरा भाई हृदय कलकत्ता काम की तलाश में आया। वह गदाधर का बचपन का मित्र था। उनसे मिलने एक दिन हृदय दक्षिणेश्वर आया, उसको देखते ही गदाधर खुश हो गए और माथुर बाबू से कहा कि आज से मैं यहीं काम करूंगा, लेकिन मेरी सहायता हृदय करता रहेगा। माथुर बाबू रानी रासमणि के दामाद थे। एक दिन मां काली की इच्छा से ही प्रख्यात वेदांतवादी दिगंबर तोतापुरी दक्षिणेश्वर आए। वह परिव्राजक थे। तीन दिन से अधिक किसी भी जगह रुकते नहीं थे। जब वह आए तो रामकृष्ण सीढिय़ों पर बैठे थे। रामकृष्ण को देखकर तोतापुरी अवाक रह गए। इतना पारदर्शी व्यक्तित्व और ऐसी अनूठी काया।
तोतापुरी ने रामकृष्ण से कहा वत्स तुम सत्य के मार्ग से बहुत आगे निकल आए हो , तुम चाहो तो मैं तुम्हे और भी आगे बढ़ा सकता हूं। उन्होंने कहा तुम्हे मै वेदांत की शिक्षा दूंगा। रामकृष्ण ने निश्छल आंखो से उन्हें देखते हुए कहा, मां से पूछ लेता हूं। रामकृष्ण अंदर गए और विधिवत मां से आज्ञा लेकर वापस आए और तोतापुरी के साथ अध्ययन आरंभ किया (किंवदंती तो यह भी है कि दक्षिणेश्वर महाकाली उन्हें साक्षात दर्शन देती थीं और रामकृष्ण परमहंस उनसे आमने सामने बात करते थे)।
कोई और होता तो निश्चित रूप से वह पूछता आप कौन हैं और आप मुझे पढ़ाने में क्यों रुचि ले रहे हैं ? तोतापुरी ने गदाधर को अद्वैत वेदांत पढऩा आरम्भ किया। अद्वैत , वेदांत का सबसे अमूर्त, वैचारिक और कठिन हिस्सा है। अद्वैत का अर्थ होता है, जहां दो नहीं होता। ईश्वर और मनुष्य दो नहीं हैं। जो तू है, वही मैं हूं।
जगत-प्रसिद्ध स्वामी विवेकानंद रामकृष्ण परमहंस जी के ही प्रधान शिष्य थे। आरंभ में वे रामकृष्ण परमहंस से बहुत तर्क-वितर्क किया करते थे, किंतु धीरे-धीरे गुरु की संगति में उन्हें आध्यात्मिक सत्य की स्पष्ट अनुभूति होने लगी। साथ-ही-साथ श्री रामकृष्ण परमहंस के प्रति उनकी श्रद्धा और गुरु-भक्ति भी बढ़ती चली गई। स्वामी विवेकानंद सदैव कहा करते थे कि उनमें जो भी गुण और ज्ञान है, वह उनके गुरु का है और जो भी कमी है वह ख़ुद उनकी है।
स्वामी जी सदैव शान्त और प्रसन्न-मुख रहा करते थे। उन्हें उदास या क्रोध करते हुए तो कभी भी देखा ही नहीं गया। उनमें अद्भुत आकर्षण-शक्ति थी। कोई भी व्यक्ति उनके उपदेश से एकदम प्रभावित हो जाता था। दूसरों की शंकाएँ वे छूमन्तर की तरह बात-की-बात में नष्ट कर देते थे। प्रत्येक बात को समझाने के लिए वह अनेक उदाहरण देते थे, जिससे मनुष्य के हृदय पर उनकी बात पूरी तरह जम जाती थी, वह भाव विभोर हो जाता था।
एक दिन श्री रामकृष्ण परमहंस के गले में कुछ पीड़ा होने लगी। शनै:शनै: उसने कैंसर का रूप धारण कर लिया। डाक्टर-वैद्यों ने औषधोपचार में कोई कमी नहीं रखी, पर स्वामी जी तो समझ चुके थे कि अब उन्हें इस संसार से जाना है। तीन मास बीमार रहे पर बराबर उत्साहपूर्वक, पूर्ववत् धर्मोपदेश करते रहे।
एक दिन अपने एक भक्त से पूछा कि आज श्रावणी पूर्णिमा है? तिथि-पत्र में देखो। भक्त ने देख कर कहा, हाँ"। बस, स्वामी जी समाधि-मग्न हो गए और प्रतिपदा को प्रात:काल (16 अगस्त 1886) को पचास वर्ष की आयु में अपनी इहलीला संपूर्ण कर ली। घर-घर यह दु:खद समाचार फैल गया। बात-की-बात में सहस्रों नर-नारी एकत्रित हो गए। पञ्चतत्त्वमय शरीर पञ्चतत्त्व में मिला दिया गया।