आकाश पटेल
देश में पेट्रोल के दाम पहली बार 100 रुपए प्रति लीटर पार कर चुके हैं। एक मोटे अनुमान के मुताबिक सरकार को जितना भी राजस्व मिलता है उसका करीब एक तिहाई यानी 33 फीसदी तेल पर लगाए टैक्स से ही आता है। भारतीय नागरिक तेल पर सर्वाधिक टैक्स देते हैं। भारत के अलावा जिन देशों में तेल पर सर्वाधिक टैक्स लगता है उनमें अमेरिका, जापान और कुछ यूरोपीय देश शामिल हैं। लेकिन ये वे देश हैं जहां नागरिकों की आर्थिक स्थिति निश्चित रूप से भारत से बेहतर है और सरकार उन्हें कोई खास तकलीफ दिए बना उनसे टैक्स वसूल सकती है।
भारत में ज्यादातर तेल उपभोक्ता गरीब हैं। और तेल पर लगने वाले टैक्स का बोझ सभी को प्रभावित करता है और गरीब पर तो इसका कुछ ज्यादा ही असर होता है। ऑटोरिक्शा चलाने वाला या टैक्सी चलाने वाला भी उसी दाम पर पेट्रोल-डीज़ल खरीदता है जिस दाम पर लाखों रुपए कमाने वाला कोई बिजनेस एक्जीक्यूटिव या कोई अरबपति उद्योगपति। ऐसी व्यवस्था एकदम तर्कहीन है। आदर्श स्थिति तो यह होती कि जो लोग ज्यादा टैक्स दे सकते हैं उनसे अधिक टैक्स लिया जाए, और इनकम टैक्स जैसे डायरेक्ट टैक्स के जरिए व्यवस्था हो सकती है। लेकिन विभिन्न कारणों से हमारे देश में ऐसा नहीं होता। बीते कुछ सालों में भले ही इनकम टैक्स रिटर्न भरने वालों की संख्या में इजाफा हुआ हो लेकिन डायरेक्ट टैक्स से राजस्व कमाई उतनी नहीं बढ़ी है।
तेल पर लगे टैक्स से कमाई में इजाफा होने का कारण यह भी हो सकता है कि जीएसटी से उतनी कमाई नहीं हो रही है। जीएसटी तो हर तरह के टैक्स हटाकर एक समान व्यवस्था लागू करने का इंतजाम था, ताकि एक मार्केट बने, व्यापार अधिक हो और अर्थव्यवस्था में इजाफा हो। लेकिन जीएसटी से सरकार उतना राजस्व नहीं कमा पाई। इसमें कोई संदेह नहीं कि बीते 36 महीनों से अर्थव्यवस्था में गिरावट हुई है जो कि जनवरी 2018 के 8 फीसदी से गिरक जनवरी 2020 में 3 फीसदी पर पहुंच गई। और इस अवधि के बाद तो पहली बार अर्थव्यवस्था ने ऐसा गोता खाया है कि वह माइनस में पहुंच गई। ऐसे में हाल फिलहाल में अर्थव्यवस्था में सुधार के आसार नहीं हैं, और सरकार पैसे के लिए दूसरे रास्ते तलाश रही है। और सबसे आसान रास्ता तेल पर टैक्स बढ़ाना ही उसे नजर आया है।
पेट्रोल और डीज़ल को मोदी सरकार के आने से पहले ही डिरेगुलेटेड कर दिया गया था, यानी इसके दामों पर सरकार का नियंत्रण खत्म कर दिया गया था। इसके पीछे तर्क था कि सरकार तेल पर सब्सिडी जारी रख हुए थी भले ही वैश्विक बाजार में कच्चे तेल के दाम आसमान छू जाएं, इस तरह सरकारी तेल कंपनियों को घाटा उठाना पड़ता था। लेकिन सरकार ने उपभोक्ता का ध्यान रखा था। लेकिन अब इसका उलटा हो रहा है। कच्चे तेल का दाम कुछ भी हो, सरकार का राजस्व सुरक्षित है। अगर कच्चे तेल का दाम गिरता है तो सरकार सारा मुनाफा अपने पास रख लेती है और दाम बढ़ता है तो सरकार दाम बढ़ा देती है। डिरेगुलेट करने का उद्देश्य यह तो कतई नहीं था।अब प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि पिछली सरकारों की गलती है कि तेल के दाम इतने ऊंचे हैं। उनका तर्क है कि पिछली सरकारों ने तेल आयात पर निर्भरता बनाए रखी, इसलिए हमें महंगा तेल मिलता है। लेकिन दुनिया के तमाम देश ऐसे हैं जिनके पास अपना तेल का भंडार नहीं है। वैकल्पिक ऊर्जा तो अभी हाल का मामला है। और जीवाश्म ईंधन यानी फॉसिल फ्यूल से इसे मिलान तो और भी नया विचार है। हमें पता होना चाहिए कि मोटर वाहनों में पेट्रोल और डीज़ल के इस्तेमाल को लेकर अभी भी यह व्यवस्था समान नहीं हुई है।
पेट्रोल और डीजल ऊर्जा घनित होते हैं। करीब 50 लीटर तेल टैंक वाली गाड़ी निर्बाध रूप से करीब 700 किलोमीटर तक चल सकती है। वहीं एक इलेक्ट्रिक कार को इतनी दूरी तय करने के लिए एक ऐसी लिथियम आयन बैट्री चाहिए होगी जिसकी क्षमता कम से कम 45-50 किलो वॉट हो। इस बैट्री की कीमत कम से कम 5000 अमेरिकी डॉलर यानी करीब 4 लाख रुपए है। इस तरह डीज़ल या पेट्रोल से चलने वाली कीमत एक कार की न्यूनतम कीमत के मुकाबले बैट्री से चलने वाली कार की कीमत करीब 10 लाख होगी। इतने बजट की कार खरीदना तो देश की तीन चौथाई आबादी के लिए संभव ही नहीं है। आने वाले समय में हो सकता है इनकी कीमतों में कमी आए क्योंकि जैसे-जैसे इलेक्ट्रिक कारों की मांग और उपयोग सभी देशों में बढ़ेगा तो बैट्री की कीमत में भी कमी आएगी। लेकिन ऐसा मानना कि यह सब आज हो जाएगा गलत है, और आज से पहले ऐसा हो सकता था, यह मानना तो एकदम गलत है।आखिरी मुद्दा इसके लिए इंफ्रास्ट्रक्चर का है। लिथियम आयन बैट्री को चार्ज होने में कम से कम 10 घंटे लगते हैं। वह भी तब तब मान लिया जाए कि सभी कार खरीदारों के पास ऐसे गैरेज हैं जिनमें बिजली कनेक्शन है। अमेरिका, यूरोप और चीन में दसियों हजार ऐसे डायरेक्ट करेंट चार्जर का नेटवर्क है जो पूरे देश में फैला हुआ है जहां फास्ट चार्जिंग हो सकती है। इन चार्जिंग प्वाइंट पर आधे समय में कार चार्ज हो सकती है। भारत में ऐसा कोई नेटवर्क नहीं है क्योंकि सरकार ने इसे तैयार ही नहीं किया है। मान लीजिए कि किसी जादू से सारी कारें आज इलेक्ट्रिक हो भी जाएं और पेट्रोल-डीजल पर निर्भरता खत्म हो जाए तो फिर ये चार्ज कहां होंगी? प्रधानमंत्री ने इसका कोई जवाब नहीं दिया है।हकीकत यह है कि नेहरू और इंदिरा या फिर वाजपेयी ने जो कुछ भी किया, पेट्रोल-डीजल पर हमारी निर्भरता बनी रहेगी। सवाल है कि सिर्फ इसी नाम पर क्या सरकार आम नागरिकों की जेब से टैक्स का बड़ा हिस्सा वसूलती रहेगी। यह वह सवाल है जिसका जवाब नेहरू जी को नहीं, नरेंद्री मोदी को देना है।
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