डॉ ललित कांत
हमारा देश कोरोना महामारी के मामले में बड़े नाजुक दौर से गुजर रहा है. कोविड-19 के संक्रमण को महामारी घोषित हुए एक साल हो चुका है और इस अवधि में इसे काबू में लाने में कामयाबी मिल रही थी। कुछ क्षेत्रों में बीच-बीच में मामले बढ़ते थे, पर पिछले साल के आखिर तक संख्या में बड़ी गिरावट आ चुकी थी। इस साल फरवरी से फिर संक्रमण में तेजी आने लगी है। जनवरी के मध्य से चल रहे टीकाकरण अभियान के तहत अब तक तीन करोड़ से अधिक लोगों को टीके की एक या दोनों खुराक दी चुकी है। लेकिन यह प्रक्रिया निर्धारित लक्ष्य से कम गति से चल रही है। अगर हमें महामारी के प्रसार को नियंत्रित करना है, तो टीकाकरण में तेजी लानी होगी। पिछले एक साल में हमें कई अनुभव भी हासिल हुए हैं। उन अनुभवों से सीख लेने की जरूरत है। संक्रमण रोकने के लिए जो पाबंदियां पहले लगी थीं, उनमें धीरे-धीरे बहुत छूट दी जा चुकी है। यातायात, बाजार, घूमने-फिरने आदि का सिलसिला पहले जैसा ही चल पड़ा है। सामाजिक आयोजन भी लगभग सामान्य तरीके से होने लगे हैं। इन सब वजहों से कुछ क्षेत्रों में संक्रमण के मामले बढऩे लगे। अब स्थिति यह है कि 70 जिलों में संक्रमण में 150 प्रतिशत से अधिक की बढ़ोतरी दिख रही है।
ऐसे 55 जिले हैं, जहां 100 से 150 प्रतिशत तक की बढ़त है। इस पृष्ठभूमि में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ जो बैठक की है, वह बहुत महत्वपूर्ण है। विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्रियों से चर्चा के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने आवश्यक और प्रासंगिक बिंदुओं को रेखांकित किया है। उन्होंने संक्रमण को नियंत्रित करने पर जोर देते हुए टीकाकरण तेज करने की जरूरत बतायी है।
उन्होंने मुख्यमंत्रियों को याद दिलाया कि पहले भी संक्रमण में बढ़ोतरी हुई थी और सभी राज्यों ने अपने प्रयासों से उस पर काबू पाया था। अब जब फिर चुनौती गंभीर हुई है, तो हमें उसी मुस्तैदी से इसका सामना करना है। पाबंदियों में ढील की वजह से मास्क पहनने को लेकर लोग कुछ लापरवाह हुए हैं। इसे ठीक करने की जरूरत है। जांच करने, संक्रमित व्यक्ति के संपर्क में आये लोगों की पहचान करने तथा प्रभावित लोगों के उपचार की व्यवस्था करने की प्रक्रिया को फिर से तेज किया जाना चाहिए।
इसी के जरिये पहले महामारी को नियंत्रित किया जा सका था। प्रधानमंत्री मोदी की यह बात भी उल्लेखनीय है कि हमें रैपिड टेस्टिंग पर बहुत भरोसा नहीं करना चाहिए। कुछ राज्यों में यही जांच अधिक मात्रा में की जा रही है। आरटी-पीसीआर जांच के तरीके पर जोर देना बेहद अहम है। इस जांच की मात्रा 60-70 फीसदी होनी चाहिए।
इस संदर्भ में हमें याद रखना चाहिए कि पहले चरण में संक्रमण के बहुत अधिक मामले बड़े शहरों से आ रहे थे, लेकिन अब मध्यम आकार के और छोटे शहर तथा उनके आसपास के ग्रामीण क्षेत्र प्रभावित हो रहे हैं। इन जगहों पर जांच और उपचार की सुविधाएं अपेक्षाकृत कम हैं। यदि ऐसी जगहों पर संक्रमण इसी तेजी से बढ़ता रहा, तो हम बहुत जल्दी बड़ी परेशानी में पड़ सकते हैं। प्रधानमंत्री ने मुख्यमंत्रियों को सचेत किया है कि अगर अभी हमने ध्यान नहीं दिया और महामारी ग्रामीण इलाकों में फैल गयी, तो उस पर काबू पाना मुश्किल हो जायेगा। इन क्षेत्रों में जांच की सुविधा उपलब्ध कराने पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए।
उपचार की व्यवस्था तुरंत कर पाना संभव नहीं होता है। ऐसे में मरीजों को शहरों में ले जाने के लिए एंबुलेंस का इंतजाम रखा जाना चाहिए। यह भी महत्वपूर्ण है, और इस पर देशभर में चर्चा भी हो रही है, कि वायरस के नये प्रकार किस हद तक खतरनाक हैं और उनकी पहचान कैसे हो सकती है। इसके लिए सभी राज्यों को अपने यहां ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि वे वायरस के नमूनों को आनुवांशिक विश्लेषण के लिए बड़ी प्रयोगशालाओं में भेजें। देश में करीब एक दर्जन ऐसी संस्थाएं हैं, जहां ऐसे विश्लेषण हो सकते हैं। इससे हमारे पास वायरस के बारे में अधिक जानकारी मिलेगी।
प्रधानमंत्री मोदी ने टीकाकरण अभियान को लेकर जो बातें कही हैं, उन पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। यदि हमें निर्धारित लक्ष्य के अनुसार आगामी महीनों में करोड़ों लोगों को खुराक देनी है, तो मौजूदा गति को तेज करना होगा। पिछले सप्ताह औसतन हर रोज 12।6 लाख खुराक दी गयी है। यह आंकड़ा संतोषजनक नहीं है। इसे बेहतर करने के लिए सरकारी अस्पतालों के साथ निजी अस्पतालों और स्वयंसेवी संस्थानों को मिलकर काम करना होगा। शासन तंत्र की मुस्तैदी से ही इन समस्याओं का समाधान हो सकेगा। महामारी रोकने के लिए अगली कतार में जूझ रहे कर्मचारियों में थकान भी पसर रही है। स्वास्थ्यकर्मियों समेत अन्य कर्मचारियों को उत्साहित करने के लिए कुछ प्रयासों की आवश्यकता है। उन्हें प्रशिक्षित करने की प्रक्रिया भी जारी रहनी चाहिए।
यदि हम महामारी के दूसरे चरण को जल्दी काबू कर सकें, तो बहुत अच्छा होगा क्योंकि जिन इलाकों में अब इसके प्रसार की आशंका है, वहां हमारे पास समुचित संसाधन नहीं हैं और नियंत्रण न होने की स्थिति में मामला बिगड़ सकता है। हमें याद रखना चाहिए कि 1918 में इंफ्लूएंजा की महामारी की दूसरी लहर अधिक भयावह साबित हुई थी। उसमें बड़ी संख्या में लोग संक्रमित भी हुए थे, बीमारी ज्यादा तकलीफदेह थी और मृतकों की संख्या भी अपेक्षाकृत अधिक थी। ऐसी ही स्थिति अभी यूरोप के कुछ देशों में है। हमें सावधान और सचेत रहने की आवश्यकता है।
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