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अहमदाबाद। दसलक्षणी पर्व के अनुसंधान में दसयति धर्म पर हमारा अनुंिचतन चल रहा है। क्षमाधर्म.. मादर््वताधर्म..संयमधर्म आदि पर बात चली है। इन सब में भी धर्म शब्द प्रयुक्त हुआ है तो आम लोगों को धर्म को समझने में तकलीफ हो जाती है। क्योंकि सामान्य तथा धर्म शब्द के साथ व्यक्ति या संस्था जुड़ी होती है। जैसे जिन का धर्म जैन, बुद्ध का धर्म बौद्ध इत्यादि। यहां जो धर्म शब्द दिया है इनका संबंध व्यक्ति या संस्था के साथ नहीं है पर आत्मगुणों के साथ है।
बहुत सारी बातें ऐसी होती है जिन को संदर्भ से समझना पड़ता है। संदर्भ को नहीं समझने तो अर्थ का अनर्थ होता है। दसयनि धर्म में धर्म शब्द आत्मगुण के अर्थ में प्रयुक्त है। क्षमा भी धर्म है। मानवता भी धर्म है। इस तरह संदर्भ समझना है।
आज तय धर्म पर हमें चिंतन करना है। तपसा निर्जरा च तप से निर्जरा होती है। तय का बाहर प्रकार का भेद है और वहीं निर्जरा तत्व है।
उक्ताशय के उद्गार प्रखर प्रवचनकार जैनाचार्य पू. राजयशसूरीश्वरजी म.सा. ने आज अपने प्रवचन में व्यक् ित किये। उन्होंने बताया कि तप करना आत्मा का गुण है। आज नेय विषय में जैनीवों का लोहा माना जाता है। अन्य धर्म वाले भी चाहे तो अवश्य तप कर सकते है। क्योंकि तप करना आत्मा का गुण है, किंतु जैनधर्म में तप की सुंदर परंपरा बनी है। पर्युषण पर्व में तो चोरों ओर तप की बहार खील जाती है।
तप का महत्व इसलिए है कि तप द्वारा कर्मबंध पर अवरोध होता है और विपुल प्रमाण में कर्मक्षय होता है। आखिर तप मोक्ष की सबल साधना रूप सिद्ध होता है। शरीर एवं इन्द्रियों को तया कर जो आत्मा की विशुद्धि करें इन का नाम तप है। वास्तविक तप वह है जो आत्म कल्याण के लक्ष्य के साथ हो। जिस तप का ध्येय मोक्ष प्राप्ति हो। व्यक्ति रोगाधीन हो जाता है और डॉक्टर खाने की मनायी करें तो वह तप नहीं है। व्यक्ति पराधीन हो गया है और खाने को मिलता नहीं है तो वह तप नहीं है। व्यक्ति को गुस्सा आ जाता है खाना पीना छोड़ देता है तो वह तप नहीं है। वह तो केवल लांघण या कायकष्ट कहलाता है।
तप कर्म निर्जरा के लिए करना है। आयुर्वेद कहता है कि आप दूध पीओ आप को तुरंत शक्ति मिलेगी। शास्त्रकार महर्षि कहते है आप तप करें। कर्मनिर्जरा का तुरंत प्रारंभ हो जायेगा। पर ध्यान करना रखना कि तप संवरपूर्वक होना चाहिए। तप के बारह प्रकार शास्त्र में दिखाये है। छ: प्रकार बाध्य तपका है छ प्रकार अभ्यंतर तप का है। बाहय तप है अणसण द्रणोदरी, वृत्तिसंक्षेप..रसत्याग, काक्लेश और संलीनता अभ्यंतर तप का प्रकार है...प्राश्चित..विनय..वैयावृत्य, स्वाध्याय..व्युत्सर्ग और ध्यान है। अनशन याने आहार का त्याग वर्तमान में उपवास आदि जो भी तप प्रसिद्ध है उनका समावेश इस अनशन तप में होता है। लोग अनशन को ही तप समझते है। लोग में व्यवहार ऐसा हो गया है कि व्यवहार को बदलना मुश्किल है। आप आठ उपवास, पंद्रह उपवास, तीस उपवास करेंगे तो आप को कोई तपस्वी कहेंने पर कोई स्वाध्याय आदि करेंगे तो तपस्वी उसे नहीं करेंगे। लोक व्यवहार में ऐसा होता है कि जो वान प्रसिद्ध हो गयी वह हो गयी।
शास्त्र पढऩे के बाद भी ेक दृष्टि शास्त्र के मर्म को समझने के लिए बनानी होती है. आगमो का अभ्यास कर के उन का मर्म नहीं मिला पाने तो उल्टे मार्ग में चले जाते है। अनशन रूप बाह्यतप यथाशक्ति करना चाहिए। यथाशक्ति मतलब शक्ति का अतिक्रमण करके नहीं करना एवं शक्ति हो तो शक्ति का गोपन भी नहीं करना। क्योंकि तप से आत्मशक्ति का तेज बढ़ता है। ओजस प्रकटता है।
द्रणोदरी का मतलब है कि जितनी भूख हो उस से एक दो कवल कम आहार खाना। हर व्यक्ति का आहार का प्रमाण अलग अलग होता है। द्रणोदरी तप से शरीर में स्फूर्ति रहती है। उस की वजह संयम में अप्रभतभाव रहता है, निद्रा भी स्वरूप होती है। स्वाध्याय आदि सकल साधना सहजना से हो सकती है। पर लोग कहते है कि द्रणोदरी तप करना मुश्किल होता है। क्योंकि भोजन करने को बैठना और भूखा रहना यह तो मुश्किल होता है। उपवास किया तो एक ही बात होती कि भोजन खाना ही नहीं पर खाने खाने को बैठना और भूखा रहना वह तो तकलीफ दायक होता है। पर द्रणोदरी तप आत्म साधना में तो साधना रूप है ही, किंतु आरोग्य देने में भी कारणभूत है। वृत्तिसंक्षेप याने आहार की संज्ञा पर नियंत्रण हेतु अमुक ही आहार लेना उन का नियंत्रण। रसत्याग याने मधुर स्वादिष्ट आहार जो इन्द्रियों को विकृत करे ऐसे आहार का त्याग। दही-दूध-धी-तेल-गुड-तलीचीज, मदिरा-मांस-मक्खन-मध आदि का त्याग इस तप में आता है।
कायक्लेश याने काया को कष्ट हो इस प्रकार केसलूचन-विहार आदि करना। इस में शरीर को कष्ट जरूर होता है पर प्रत्येक श्रम एक कष्ट ही कहा जायेगा। बिना परिश्रम हमारा शरीर कोई कार्य साधन नहीं रहेगा। मिलेटरी का जीवन कष्टमय जीवन है। पर वहीं लोग देश की सुरक्षा करने में सक्षम बनते है। इसी तरह एक सम्यक परिश्रमी साधु या गृहस्थ शारीरिक कष्ट से आत्मिक इष्ठ की प्राप्ति करता है। संलीनता प्रत्येक प्रकार की योगसाधना का समावेश संलीनता में होता है। योग साधना अर्थात् प्रत्येक यम-नियम, प्राणायाम प्रत्याहार-धारणा-ध्यान एवं समाधि सब में संलीनता अनिवार्य है। यह संलीनता ही तप है। प्रायश्चित जो अपराध की शुद्धि करें वह प्रायश्चि। सिर्फ अपराध नहीं अपराधी वृत्ति का त्याग ही सच्चा प्रायश्चित है।
विनय याने जिन में गुणणान प्रति आद सत्कार-बहुमान की प्रधानता हो ऐसा तप वैयवृत्य याने आचार्य-उपाध्याय-साधु-बालदीक्षित-रोगी-तपस्वी आदि की सेवा। स्वाध्याय याने श्रुतज्ञान का बारबार पुनरार्वतन करना। वह भी तप है। व्त्यर्ग याने साधना में बिन जरूरी सभी चीज का त्याग। ध्यान याने चित्तकी एकाग्रता। बारो ही प्रकार के तप को जीवन में उचित स्थान देना चाहिए। जैसे जिन प्रवचन की द्वादशांगी में प्रत्येक आगम का अपना महत्व है। वैसे तप की द्वादशांगी का भी जीवन में अपना महत्व है। ध्यान तथा कायोत्सर्ग उत्कृष्ट तय ही मंगल है।