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अनिल प्रकाश जोशी 
वनों के महत्व को समझने-समझाने में हम आज तक चूक कर रहे हैं। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि हम लगातार वनों को खो रहे हैं। भारतीय वन सर्वेक्षण कितना भी दावा कर ले, पर वनों का प्रतिशत संतोषजनक नहीं माना जा सकता। यह वनों की परिभाषा के प्रति हमारी नासमझी को भी दिखाता है। 
वन मात्र वृक्ष ही नहीं होते, उनकी पारस्परिक पारिस्थितिकी व प्रजातियों पर भी चर्चा जरूरी है। वैसे हमने पौधारोपण को फैशन बतौर जरूर अपनाया है और आज सभी तरह के आयोजन व पर्वों में पौधे लगाकर हम अपने दायित्व व औपचारिकताएं जरूर निभा लेते हैं। मसलन, हर वर्ष हम इस तरह के कई आयोजनों का हिस्सा बनते व बनाए जाते हैं, जहां पौधारोपण का लक्ष्य तय होता है, इसमें सरकारी हो या गैर-सरकारी संगठन, सबमें हरियाली पैदा करने के नाम पर ठोककर पौधारोपण किया जाता है। सच यह है कि बाद में ये सब साफ हो जाता है, सिवाय अखबारों व सोशल मीडिया में छपी तस्वीरों के। इसका दुष्परिणाम भी झेलना पड़ता है कि आने वाले समय में इस तरह के कार्य को कोई गंभीरता से नहीं लेता। पिछले दशकों में अनगिनत पौधारोपण हुए हैं, बल्कि कई तरह के दावे भी किए गए हैं और इनमें सच्चाई होती, तो आज देश में वन लगाने के लिए जगह नहीं बची होती!
असल में तीन-चार दशकों से दुनिया भर में बिगड़ते पर्यावरण को लेकर जब से अंतरराष्ट्रीय चिंता बननी शुरू हुई, तब से इस तरह के आयोजन कर प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता जताने की औपचारिकता शुरू हुई। ऐसे कार्यक्रमों में वन और वृक्षों की आधिकारिक समझ नजर नहीं आती। यह कभी नहीं सोचा जाता कि कहां पर हमें कौन-सी प्रजाति के पौधे रोपने चाहिए। यह भी नहीं समझा जाता है कि हरेक प्रजाति के वृक्ष का स्थानीय मिट्टी, पानी व जलवायु से एक जुड़ाव होता है। इसके अनुरूप ही वृक्ष सही योगदान कर पाते हैं, वरना अनुपयोगी ही रह जाते हैं।
मसलन, चार-पांच दशक पहले हिमालय की तलहटी में घटते वनों के अभाव में सागौन का हजारों हेक्टेयर भूमि में वनीकरण हुआ। यह मूल रूप से दक्षिण भारत का वृक्ष है। जहां अत्यधिक गर्मी ही इसकी पारिस्थितिकी को नियंत्रित करती है। इसकी चौड़ी बड़ी पत्तियां जल्दी से हिमालयी वातावरण में पत्तियों का ढेर नहीं बन पाती हैं और इसके कारण इस तरह के वनों के बीच कुछ नहीं पनपता और पूरी पारिस्थितिकी अस्त-व्यस्त हो जाती है। केरल से इस वृक्ष को यहां लाने के पीछे वन विभाग ने इसकी लकड़ी के महत्व को ज्यादा लाभप्रद माना था, पर इसने यहां की पारिस्थितिकी को असंतुलित कर दिया। इसी तरह मध्य हिमालय में चीड़ व मैदानी क्षेत्रों में यूकेलिप्टस जैसी प्रजातियों की भरमार के पीछे इसके आर्थिक पहलू पर ज्यादा जोर था। आज हिमालय के वनों की आग के लिए सबसे ज्यादा घातक चीड़ ही निकला और इसी तरह यूकेलिप्टस पानी का दुश्मन।
सच तो यह है कि वन विज्ञान की शिक्षा में आज भी वनों के आर्थिक पहलू व योगदान पर ज्यादा जोर रहता है। वनों के आर्थिक लाभ ही वन शिक्षा का केंद्र हैं। यह परोक्ष में बहुत सूक्ष्म रूप में वनों के योगदान को दर्शाता है। पर सच तो यह है कि इससे कई गुना वनों का पारिस्थितिकी योगदान होता है, क्योंकि इनसे प्राप्त हवा, मिट्टी व पानी जो इनके अपरोक्ष योगदान होते हैं, उनका कोई सीधा आंकड़ा तैयार नहीं किया जाता। वनों-वृक्षों के संदर्भ में इन्हीं योगदानों को महत्व दिया जाना चाहिए न कि इनके अन्य आर्थिक उत्पादों को। कुछ हद तक इस तरह की जागरूकता दिखती जरूर है, पर उसमें व्यावहारिकता नहीं झलकती। अगर ऐसा नहीं होता, तो आज दुनिया में प्रति वर्ष एक करोड़ हेक्टेयर वन नहीं काटे जाते। अपने ही देश में वर्ष 1988 से लेकर 2000 तक तकरीबन 10 करोड़ हेक्टेयर वनों का हमने सफाया किया है।
सवाल यह पैदा होता है कि जिस विकास की दौड़ में हम हैं, उसमें अरण्य विकास ज्यादा मायने नहीं रखता। पर यह हमारी बड़ी भूल है, क्योंकि हर तरह के विकास की मूल जड़ें पारिस्थितिकी से ही जुड़ी हैं और पर्यावरण में वनों की अहम भूमिका होती है। वर्षा के पानी का सबसे उम्दा संरक्षण वनों से ही संभव है। दुनिया भर में जलागमों का सबसे बड़ा संकट घटते वन ही हैं।
वन के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। इसके बावजूद अपने देश में वनों के हालात बदतर होते जा रहे हैं। जिस रफ्तार से विकास कार्यों में वनों का पतन हो रहा है, उसके सापेक्ष भरपाई नहीं हो रही है। देश की 33 प्रतिशत भूमि में वन होने चाहिए, मगर सरकारी आंकड़ों के अनुसार मात्र 23 प्रतिशत में ही वन हैं। वनों की अनदेखी अब ठीक नहीं है, हमारी विकासी रफ्तार विनाशी न हो जाए, इसके लिए वन देवता का स्मरण करने की जरूरत है।