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उत्तराखंड में भाजपा ने अपनी सरकार का नेतृत्व परिवर्तन करने की कोई वजह नहीं बताई। रावत की जगह बस सांसद तीरथ सिंह रावत बन गए मुख्यमंत्री। यानी रावत की जगह रावत। इसी तरह सूबेदार भी बदला। बंशीधर भगत की जगह मदन कौशिक। यानी ब्राह्मण के बदले ब्राह्मण। तीरथ सिंह रावत किसी पुराने मंत्री का विभाग तक नहीं बदल पाए। अलबत्ता तीन नए लोगों को मंत्री पद जरूर मिल गया। इस बदलाव ने चुनाव आयोग का काम जरूर बढ़ा दिया।
इसमें कतई संदेह नहीं कि पश्चिम बंगाल की सत्ता पर कब्जे के लिए भारतीय जनता पार्टी साम, दाम, दंड और भेद हर नीति को अपना रही है। ममता बनर्जी को चुनौती देने लायक अपना काडर तैयार नहीं कर पाई तो तृणमूल कांग्रेस में सेंधमारी का मेगा अभियान चलाया। गृहमंत्री ने तो यहां तक एलान कर दिया था कि विधानसभा चुनाव आते-आते तृणमूल कांग्रेस के सभी नेता दीदी का साथ छोड़ जाएंगे और पार्टी में बस बुआ-भतीजा (अभिषेक बनर्जी) ही बचेंगे। ममता बनर्जी विचलित तो जरूर हुई होंगी पर बचाव में यही दलील दी कि जिन पर आरोप हैं, उन्हें केंद्रीय जांच एजंसियों का डर दिखा कर तोड़ा जा रहा है। पर वे डरने वाली नहीं। भाजपा ने यकीनन लक्ष्य भी बड़ा रखा है। पिछले चुनाव में महज तीन सीटों पर सिमट जाने वाली पार्टी अपने बूते सरकार बनाने का सपना देख रही है। लोकसभा चुनाव में 18 सीटों पर मिली सफलता ने उसे सत्ता का ख्वाब दिखाया है।
यह बात अलग है कि 2019 का लोकसभा चुनाव भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर लड़ा गया था और यह विधानसभा चुनाव भी उन्हीं के सहारे लड़ रही है पार्टी। तृणमूल कांग्रेस के पास जिस तरह 2019 में न प्रधानमंत्री पद की दावेदारी का दम था और न चेहरा। ठीक वैसी ही दशा में अब भाजपा है। उसके पास मुख्यमंत्री पद का ममता के मुकाबले का न कोई नेता है और न वैसा खुद का जनाधार। उधार के नेताओं ने पार्टी का कुनबा तो जरूर बढ़ाया है पर उसके कारण समस्याएं भी बढ़ी हैं। दलबदलुओं के कारण उभरे असंतोष ने उत्तराखंड में तो पार्टी को सत्ता के चार साल बाद मुख्यमंत्री बदलने को विवश किया पर पश्चिम बंगाल में तो असंतोष टिकटों के बंटवारे के साथ ही सामने आ गया है।कोलकाता में बागियों ने टिकट न मिलने पर पिछले हफ्ते जमकर हंगामा किया। गृह मंत्री और पार्टी अध्यक्ष नड्डा दोनों को पिछली सोमवार कोलकाता में पूरी रात जागना पड़ा। तीसरे और चौथे चरण वाली 63 सीटों के उम्मीदवारों के नाम की घोषणा के साथ ही बगावत रविवार को ही शुरू हो गई थी। प्रदर्शन इतना उग्र था कि पुलिस को लाठीचार्ज करना पड़ा। कार्यकर्ताओं ने खुली धमकी भी दी कि उम्मीदवार नहीं बदले तो वे काम नहीं करेंगे। तृणमूल कांग्रेस के प्रवक्ता कुणाल घोष ने कहा कि उधार के उम्मीदवारों को लेंगे तो यही हश्र होगा। ऊपर से कटाक्ष अलग किया कि आडवाणी-जोशी जैसे कद्दावर नेताओं को ज्यादा उम्र का वास्ता देकर घर बिठाने वाली पार्टी पश्चिम बंगाल में बूढ़े उम्मीदवारों को टिकट देने से परहेज नहीं कर रही।
उत्तराखंड में भाजपा ने अपनी सरकार का नेतृत्व परिवर्तन करने की कोई वजह नहीं बताई। रावत की जगह बस सांसद तीरथ सिंह रावत बन गए मुख्यमंत्री। यानी रावत की जगह रावत। इसी तरह सूबेदार भी बदला। बंशीधर भगत की जगह मदन कौशिक। यानी ब्राह्मण के बदले ब्राह्मण। तीरथ सिंह रावत किसी पुराने मंत्री का विभाग तक नहीं बदल पाए। अलबत्ता तीन नए लोगों को मंत्री पद जरूर मिल गया। इस बदलाव ने चुनाव आयोग का काम जरूर बढ़ा दिया। विधानसभा चुनाव में अभी एक वर्ष का समय बाकी है। इस नाते तीरथ सिंह रावत को छह महीने के भीतर विधानसभा का सदस्य निर्वाचित होना पड़ेगा।
वे अभी लोकसभा के सदस्य हैं। इस्तीफा देंगे तो चुनाव आयोग को विधानसभा और लोकसभा दोनों सीटों के लिए उपचुनाव की कवायद करनी पड़ेगीं। त्रिवेंद्र सिंह रावत के लिए अभी तक पार्टी ने कोई भूमिका तय नहीं की है। जिस तरह के तेवर पद से हटाए जाते वक्त उन्होंने दिखाए, उसे देखते हुए फिलहाल उनका पुनर्वास संभव भी नहीं लगता। पत्रकारों ने उनके इस्तीफे की वजह पूछी थी तो उन्होंने तपाक से जवाब दिया था कि दिल्ली वाले बताएंगे। सरकार का न कोई कायाकल्प हुआ और न किसी नई नीति या योजना का एलान। हां, लड़कियों को फटी जींस न पहनने की नसीहत देते-देते वे नैतिकता के थानेदार की भूमिका में जरूर उलझ गए।
सियासी पैंतरेबाजी में नीतीश बेमिसाल हैं। विधानसभा चुनाव से पहले अपना आखिरी चुनाव होने का एलान मतदाताओं की सहानुभूति बटोरने के हथकंडे से ज्यादा कुछ नहीं था। मुख्यमंत्री बने तो जनता दल (एकी) का अध्यक्ष पद छोड़ दिया। आईएएस की नौकरी छोड़ राजनीति में आए अपने स्वजातीय और खासमखास आरसीपी सिंह को पार्टी का नेतृत्व सौंप दिया। भाजपा से आधी सीटें और तीसरे नंबर की पार्टी है उनकी। सो दबाव से बचने के लिए एक तरफ तो जनाधार का विस्तार कर रहे हैं, दूसरी तरफ छोटे दलों के विधायकों में सेंधमारी।इसी हफ्ते पुराने साथी उपेंद्र कुशवाह की पार्टी रालोसपा का भी जनता दल (एकी) में विलय करा दिया। नीतीश कुर्मी हैं और कुशवाह कोयरी। यह बात अलग है कि विधान परिषद में बारह सदस्यों के मनोनयन को लेकर उनके दो सहयोगी दल खफा हैं। जीतन राम मांझी और मुकेश सहनी दोनों ने इंसाफ की गुहार लगाई है। गठबंधन धर्म का पालन नहीं करने का अलग लगाया है आरोप। सहनी को शिकायत है कि नोनिया बिरादरी का एक एमएलसी बनाने का वादा नीतीश ने पूरा नहीं किया।