
अहमदाबाद। एक गांव में एक कसाई रहता था। उसे किसी प्रकार के संस्कार नहीं मिले इसलिए वह प्राणीओं की हिंसा करके आनंद लेता था। बिचारे अबोल प्राणी अपने मुख से कुछ नहीं बोल पाते थे सिर्फ जब वे चीखे-चिल्लाने थे उसे देखककर वह कसाई मजा लेता था। कहते है कितने लोग दूसरों को पीड़ा करने में आनंद मानते हैं।
अहमदाबाद में बिराजित प्रखर प्रवचनकार, संत मनीषि, गच्छाधिपति पू.आ.देव राजयश सूरीश्वरजी महाराज श्रोताजनों को संबोधित करते हुए फरमाते हैं, पशु एवं मनुष्य में फरक क्या है? पशु विचार शून्य है जबकि मनुष्य विचारवान है। मान लो, एक बिल्डिंग में आग लगी है। कुत्ता पार्किंग में गाड़ी के नीचे बैठा है और मानव दूसरी मंजिल में अपने प्लेट में टीवी देख रहा है। आग को देखकर मानवी टीवी का मजा छोड़कर अपने प्राणों को बचाने बिल्डिंग से बाहर आकर कुछ दूरी पर खड़ा रहेगा जबकि कुत्ते को पता है आग लगी है परंतु वह विचार शून्य पशु है इसलिए यह जहां बैठा है, वहीं पर बैठा रहेगा। उसकी मौत होगी।
प्रवचन की धारा को आगे बढ़ाते हुए पूज्यश्री फरमाते हैं मानव क्रूर है उसे प्राणियों पर दया नहीं है इसीलिए वह कसाई प्राणियों की हिंसा करते हुए आनंद ले रहा था। एक दिन अचानक कसाई की उंगूली पर वह छूरी लग गई और वह दर्द असल होने से वह चीखने-चिल्लाने लगा। कुछ क्षण के लिए तो वह अधमरा सा हो गया। जब वह स्वस्थ हुआ तो उसे विचार आया अब तक मैं प्राणियों की हिंसा करके मजा ले रहा था आज मुझे पता चला दर्द क्या होता है?
पूज्यश्री फरमाते है जो व्यक्ति पर पीड़ा का दर्द समझ सकता है वह व्यक्ति मानव से देव बन जाता है। जिस मानव में दया नहीं वह मानव, मानव होते हुए भी पशु तुल्य है। जिस व्यक्ति में दया है, दूसरों की पीड़ा का दु:ख है वह व्यक्ति सही दर्जे में मानव है और यही मानव आगे जाकर देवगति को पाता है। अब तक वह कमाई मानव होते हुए भी पशु तुल्य था अब उसमें समझ आई और वह मानव बना। मन-वचन-काया से भी किसी को पीड़ा न हो उस प्रकार की सावधानी मानव को बर्तनी है। परंतु कितने को होता है हरियाली पर चलने से मजा आता है। इसलिए वे गार्डन में शाम को घूमते फिरते है। पूज्यश्री फरमाते है जिसे पर पीड़ा का दु:ख होता है तथा जो दूसरों की पीड़ा को दूर करता है उसमें अध्यात्मता प्रगटती है। जिसमें अध्यात्म भाव जागे वह व्यक्ति हर तरह से सावधान रहेगा तथा दूसरों को पीड़ा न हो उस प्रकार से बर्ताव करेगा।
दशवैकालिक सूत्र में शय्यंभव सूरि महाराजा ने बताया, जयंभरे, जयं चिट्ठे,जयं मासे जयं सअे, जय मुंजंतो भासंतो, पावं कम्मं न बंधई।।
हरेक व्यक्ति को जयणा पर्वक चलना, उठना-बैठना-सोना-खाना एवं पीना चाहिए जिससे पाप कर्म का बंध न हो। हमें पूरी तरह से सावधानी रखनी है कि कोई भी जीव हमारे कारण किसी भी प्रकार से पीडि़त न हो। अब तो इतिहास ही बदल गया है एक दूसरे के सामने स्नेह भरी नजर से देखने के बजाय नफरत भरी दृष्टि से देखते है। मीठे बोल बोलने के बजाय कड़वे वचनों के तीर बरसाते है। नोकर हुआ तो क्या? सीएमहो के पीएम हो या मील के मालिक हो, हमारा जीवन इस प्रकार का बनाना है कि किसी को मन-वचन अथवा तो काया से भी दु:खी नहीं करना, पर की पीड़ा को दूर करना वहीं हमारा उद्देश्य होना चाहिए। जिस आत्मा में इस प्रकार से पर पीड़ा का दु:ख दूर करने की भावना पैदा होती है वहीं व्यक्ति संयम लेने के योग्य है।आप किसी भी प्रकार की प्रवृत्ति करो उसमें आसक्त न बनो। विषयों में आसक्त बनने वाले का कर्मबंध जरूर होता है। चाहे करोड़पति हो या अरबोपति हरेक के धर में जय कोई बच्चा जन्म लेता है तब वह नग्न ही जन्म लेता है।हम कुछ साथ में लेकर वहीं आए और मृत्यु के बाद भी कुछ साथ में लेकर नहीं जाएगें। सोना-चांदी के दागी ने भी यदि मृत देह पर लगाया जाय तो वह भी सात नहीं जाएगा फिर ऐसे विषयों पर आसक्ति किस काम की आत्मा तो एक प्रवासी है उसे तो देह को छोड़कर जाना ही पड़ेगा फिर मोह करने से क्या फायदा बस, प्रवृत्ति करो तो ऐसी करो तुम्हारे में अध्यात्म भावना जगे और शीघ्र तुम्हें आत्मा से परमात्मा बनाये।