Head Office

SAMVET SIKHAR BUILDING RAJBANDHA MAIDAN, RAIPUR 492001 - CHHATTISGARH

सुखी भारती 
यूंतो हमारी भारतीय संस्कृति में वैदिक परम्परानुसार वर्ष भर में अनेकों त्योहारों के मनाए जाने का प्रावधान है जिनका आधर कोई न कोई पौराणिक कथा एवं इसके अंदर छुपे आध्यात्मिक, वैज्ञानिक रहस्य हैं। इसी प्रकार होली का त्योहार भी भक्त के परस्पर प्रेम पर आधरित है।
बसन्त ऋतु का आगमन, चमकीली गुनगुनी धूप, हवा में उड़ते हुए पुकेसरों की भीनी-भीनी मनभावन सुगंध्, पतझड़ की निष्ठुरता झेल चुकी ठूंठ बनी टहनियों में फिर से जीवन का प्रस्फुटन हो जाता है। बसंत की दहलीज़ पर ग्रीष्म प्रवेश पाने को तैयार और विसर्जित होता शीत, यही समय है रंगों के पर्व होली का। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि पर्व मानव जीवन की बोरीयत को दूर करने के लिए उल्लास व स्फूर्ति भरे अंतराल हैं। और त्योहारों का, पर्वों का नाम सुनते ही मानव मन में खुशियों व उमंग की लहरें हिलोरे लेने लगती हैं। और सज्जनों होली ऐसा ही नटखट, चुलबुला व रंग-बिरंगा त्योहार है। शीतल पानी की बौछारें, गुलाल से रंगे हँसते मुस्कुराते चेहरे व हवा में गुलाब, अबीर की सौंधी, भीनी सी खुशबू एक अदभुत व विलक्षण माहौल का सृजन करते हैं। 
यूं तो हमारी भारतीय संस्कृति में वैदिक परम्परानुसार वर्ष भर में अनेकों त्योहारों के मनाए जाने का प्रावधान है जिनका आधर कोई न कोई पौराणिक कथा एवं इसके अंदर छुपे आध्यात्मिक, वैज्ञानिक रहस्य हैं। इसी प्रकार होली का त्योहार भी भक्त के परस्पर प्रेम पर आधरित है। किस प्रकार एक भक्त की अनन्य व निष्काम भक्ति प्रभु को निर्जीव, ठोस खंभे में से प्रकट होकर नन्हें प्रहलाद की रक्षा हेतु प्रेरित करती है या यों कह सकते हैं कि होली पर्व का भावात्मक पक्ष प्रभु व भक्त के मध्य 'योगक्षेमं वहाम्यहम्' के अटूट संबंध का ही द्योतक है। हमारे देश भारत में होली के दिन प्राकृतिक रंगों, गुलाल, पुष्पों से एक दूसरे को रंगकर यह पर्व मनाए जाने का विधन है।
रंगों के इस पर्व का एक विशेष भावनात्मक व आध्यात्मिक अर्थ यह भी है कि एक भक्त को अपने मन व आत्मा को पूर्णत: प्रेमरस से सराबोर कर स्वयं को भी एक रंगशाला ही बना लेना चाहिए। जिसके विषय में एक शायर ने भी बहुत खूब कहा है-
प्राण पत्थर थे अब फूल माला हुए, 
हम अंधेरों में हँसता उजाला हुए,
प्रीति के रंग ने जब हमें रंग दिया, 
हम स्वयं प्यार की रंगशाला हुए।
इस मजीठी रंग के समक्ष तमाम बाहरी रंग फीके व कच्चे हैं। कबीर जी कहते हैं-'कबीरा काली कामरी चढ़े न दूजो रंग।Ó इतिहास साक्षी है कि प्रेम व भक्ति के रंग में रंगे व प्रेम की खुमारी में मस्त भक्तों के समक्ष विषम परिस्थितियों व दु:ख इत्यादि का कोई अस्तित्व ही नहीं होता। जैसा कि नन्हे बालक भक्त प्रहलाद के साथ हुआ। प्रभु के उस अनन्य भक्त ने तनिक भी विचलित हुए बिना सहर्ष ही समस्त कठिनाइयाँ को पार कर प्रभु चरणों में स्थान प्राप्त किया, प्रभु को उसके प्रेम के वशीभूत होकर नृसिंह रूप धारण करना पड़ा। एवं भक्त की रक्षा हेतु उसके आतताई राक्षस पिता का वध कर उसका उद्धार किया। इसलिए हमारे सन्तों ने तो प्रभु की तुलना रंगरेज से की है। जिस प्रकार एक रंगरेज चुनरिया को पक्के रंग में रंगने के लिए उसे खौलते पानी में डालकर तपाता है। चुनरी जितनी ज्यादा देर तक खौलते पानी में रंग का संग करेगी उतना ही उसका रंग गाढ़ा होता जाता है। 
ठीक इसी प्रकार भगवान भी भक्त की आत्मा व मन रूपी चुनरिया को प्रभु प्रेम में रंगता है। रंगने की यह प्रक्रिया उसी क्षण आरम्भ होती है जिस क्षण प्रभु की प्रथम दृष्टि भक्त पर पड़ती है। परन्तु भक्ति के रंग की प्रगाढ़ता हेतु भक्त खौलते पानी रूपी विषम परिस्थितियों व परीक्षाओं से गुजरता है। जिनमें से गुजरकर उसकी भक्ति रूपी चुनरी गहरे चटक रंग में रंगी जाती है। और रंगने की यह प्रक्रिया उम्र भर प्रति पल प्रति क्षण चलती है। जो आंतरिक होती है व इसीलिए एक भक्त का, गुरु के शिष्य का हर दिन होली होती है वे केवल यही गुहार करते हैं-
श्याम पिया मोरी रंग दे चुनरिया
लाल न रंगाऊँ मैं हरी न रंगाऊँ, 
अपने ही रंग में रंग दे चुनरिया।
लेकिन यह अत्यंत अशोभनीय है कि आज होली जैसे पवित्रा पर्व के न तो हम आध्यात्मिक पक्ष से परिचित हैं और न ही वैज्ञानिक पक्ष से, अपितु इस पवित्र पर्व को एक विकृत रूप प्रदान कर मात्रा शोर शराबे तथा हुल्लड़बाजी तक ही सीमित कर दिया है। इस दिन लोग नशा, जुआ, हिंसा, गन्दे तथा नुकसान करने वाले रंगों का प्रयोग करते है। जिसके परिणामस्वरूप इसमें निहित आध्यात्मिकता का लोप हो गया है।
अत: आज पुन: आवश्यकता है हम सब अपनी सुसंस्कृत भारतीय वैदिक परम्परा को जानकर व इसकी गरिमा में रहते हुए सभी पर्वों, त्योहारों को मनाएं व एक सुखद, कल्याणकारी उल्लासपूर्ण माहौल का सृजन करें।