डॉ. सुशील कुमार सिंह
म्यामार में लोकतंत्र की सबसे बड़ी उम्मीद आंग सान सू की से कहां चूक हो गई कि वहां की सत्ता पर एक बार फिर सेना का कब्जा हो गया। दशकों के संघर्ष के बाद उन्हें देश की कमान मिली थी। 2015 के चुनाव में जब सू की को जबर्दस्त जीत मिली थी तब लगा था कि म्यांमार के हालात सुधर जाएंगे, लेकिन एक बार फिर म्यांमार सैन्य शासन के हाथों में चला गया है।
जाहिर है वहां एक अदद लोकतंत्र की तलाश अब भी जारी है। सैन्य शासन के पांच दशक के बाद मार्च 2016 में म्यांमार में लोकतंत्र बहाल हुआ था। म्यांमार के सांसदों ने आंग सान सू की के करीबी तिन क्यां को देश का पहला असैन्य राष्ट्रपति चुना था। वैसे तो सू की पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी ने चुनाव में भारी जीत हासिल की थी। दोनों सदनों में उसे बहुमत भी मिले थे। बावजूद इसके म्यांमार में सेना ने भी मजबूत पकड़ बनाए रखी।
गौरतलब है कि साल 1962 में सत्ता को अपने हाथों में लेने वाली वहां की सेना ने म्यांमार के संविधान में एक ऐसा प्रविधान कर दिया कि आंग सान सू की बड़ी जीत हासिल करने के बावजूद राष्ट्रपति बनने से वंचित हो गई थी। उस प्रविधान के अनुसार जिनके करीबी परिजन विदेशी नागरिक हों वे राष्ट्रपति नहीं बन सकते। मालूम हो कि आंग सान सू की के बेटों के पास विदेशी नागरिकता थी यही उनके राष्ट्रपति बनने की राह में रोड़ा था। हालांकि 2018 में म्यांमार की कमान तिन क्यां की जगह विन मिंट को दे दी गई थी। कुल मिलाकर म्यांमार लोकतांत्रिक तरीके से आगे बढ़ चला था, मगर क्या पता था कि कोरोना के बीच वहां के लोकतंत्र को भी तानाशाही नामक वायरस जकड़ लेगा। एक बार फिर म्यांमार की जमीन पर लोकतंत्र बंधक हो जाएगा।
म्यांमार में इस सैन्य तख्तापलट और आंग सान सू की समेत कई शीर्ष नेताओं की गिरफ्तारी पर अमेरिका, इंग्लैंड समेत दुनिया के तमाम छोटे-बड़े देश चिंता जता रहे हैं। अमेरिका ने तो स्पष्ट किया है कि लोकतंत्र को बहाल करने के लिए सही कदम न उठाने पर कार्रवाई करेंगे। संयुक्त राष्ट्र ने भी इस पर चिंता जताई है। सवाल है कि म्यांमार में इस बार राजनीतिक संकट क्यों उत्पन्न हुआ? असल में सेना यह आरोप लगा रही है कि वहां चुनाव परिणामों में धांधली हुई है। मालूम हो कि नवंबर 2020 के चुनाव में वहां संसद के संयुक्त निचले और ऊपरी सदनों में सू की की पार्टी ने 476 सीटों में 396 सीटों पर जीत हासिल कर ली थी। यह सेना को नागवार गुजरी। उसने धांधली का आरोप लगाते हुए लोकतंत्र को बंधक बना लिया।
सेना के पास साल 2008 के सैन्य मसौदा संविधान के अंतर्गत अभी भी कुल सीटों में से 25 फीसद आरक्षित हैं। इतना ही नहीं कई प्रमुख मंत्री पद भी सेना के लिए आरक्षित हैं। सेना बड़े पैमाने पर धांधली का आरोप लगा तो रही है, पर सुबूत देने में वह असफल है। ऐसे में यह साफ प्रतीत होता है कि उसका इरादा लोकतांत्रिक सत्ता को हड़पने का था। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सेना द्वारा पहले वहां लोकतंत्र पर कब्जा किया गया, फिर उसके खिलाफ प्रदर्शन कर रहे लोगों को मौत के घाट उतारा जा रहा है। अब तक यंगून, मांडले समेत करीब दो दर्जन शहरों और कस्बों में सैकड़ों प्रदर्शनकारी मारे जा चुके हैं। देखा जाए तो पुलिस और सैनिक आक्रामक रवैया अपनाए हुए हैं। हालांकि इन सबके बीच वहां लोकतंत्र की रक्षा और बहाली को लेकर भी बातें सामने आ रही हैं। सैन्य शासन जुंटा के प्रमुख ने कहा है कि वह हर कीमत पर जनता की रक्षा करेंगे और जल्द ही चुनाव कराएंगे, लेकिन इसका समय नहीं बता रहे हैं।
सैन्य शासन का लंबा इतिहास : म्यांमार में कभी अंग्रेजों का राज था। साल 1937 से पहले औपनिवेशिक सत्ता ने उसे भारत का ही एक राज्य घोषित कर रखा था। बाद में उसे भारत से अलग कर अपना एक उपनिवेश बना लिया। गौरतलब है कि 1980 के पहले इसका नाम बर्मा था। चार जनवरी, 1948 को बर्मा ब्रिटिश शासन से मुक्त हुआ और 1962 तक वहां पर लोकतंत्र के तहत सरकारें चुनी जाती रही थीं। मगर दो मार्च, 1962 को सेना के तत्कालीन जनरल ने विन चुनी हुई सरकार का तख्तापलट करते हुए सैन्य शासन की स्थापना कर दी। वहां के संविधान को निलंबित कर दिया। सैन्य शासन के उस दौर में मानवाधिकार के उल्लंघन के भी आरोप लगते रहे। वहां सैन्य सरकार को मिलट्री जुंटा कहा जाता था। फिर लंबे संघर्ष और कई उतार-चढ़ाव के बाद आखिरकार वहां पर लोकतंत्र बहाल हुआ, जिसका श्रेय तीन दशकों से इसके लिए प्रयासरत आंग सान सू की को जाता है। मगर एक हकीकत यह भी है कि जहां लोकतंत्र को हड़पने की स्थिति बनती हो वहां ऐसा बार-बार बनने की संभावना भी रहती है। पाकिस्तान भी इसका बड़ा उदाहरण है।
भारत की चिंता : पड़ोसी म्यांमार में सैन्य तख्तापलट होने और शीर्ष नेताओं को हिरासत में लेने के चलते भारत को चिंतित होना लाजमी है। पड़ोसी देशों में सत्ता के लोकतांत्रिक ढंग से हस्तांतरण का भारत हमेशा से समर्थन करता रहा है। जाहिर है कानून के शासन और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के विरुद्ध तानाशाही का म्यांमार में होना मानवता के हित में नहीं है। भारत का मानना है कि लोकतंत्र समर्थक शक्तियों को अलोकतांत्रिक ढंग से नहीं कुचला जाना चाहिए। भारत की लगभग 1600 किमी लंबी सीमा म्यांमार से लगती है। भारत को इस सीमा पर अलगाववादियों के हिंसक गतिविधियों का भी सामना करना पड़ता रहा है। इसके अलावा अफगानिस्तान के बाद म्यांमार नशीले पदार्थो का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। वहां से पूवरेत्तर में इनकी बड़ी खेप आना भारत के लिए एक बड़ी समस्या रही है। नशीले पदार्थो के अवैध व्यापार, विद्रोही गतिविधियों एवं तस्करी की बुराइयों से निपटने के लिए दोनों देशों के बीच 1993 में एक संधि भी हुई थी। भारत-म्यांमार व्यापार संबंध 1970 में हुए एक व्यापार समझौते के बाद प्रगाढ़ हुए हैं। नवंबर 2015 में वहां लोकतंत्र बहाल होने से भारत को एक और लोकतांत्रिक पड़ोसी का मिलना भी तय हो गया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी तब वैश्विक फलक पर दिखने लगे थे।
वास्तव में नवंबर 2014 में मोदी ने म्यांमार, ऑस्ट्रेलिया समेत फिजी के दस दिवसीय दौरों के दौरान तीन दिन म्यांमार में बिताए थे। वह दौरा आसियान और पूर्वी-एशिया समिट में भाग लेने से संबंधित था। उसी दौरान सू की से उनकी मुलाकात हुई थी। तब से लेकर अब तक म्यांमार के साथ भारत का संबंध समतल बनाने का प्रयास किया गया है। हालांकि 2017 में म्यांमार के रखाइन प्रांत में रोहिंग्या मुसलमानों के साथ जातीय हिंसा में एक बार फिर तेजी आई थी। उसी दौरान प्रधानमंत्री मोदी की म्यांमार की एक और यात्र भी हुई थी। आज हजारों की तादाद में रोहिंग्या मुसलमान अवैध रूप से भारत में रह रहे हैं। ये भारत के लिए खतरा बने हुए हैं। यह अच्छी बात है कि म्यांमार के सहयोग से इन्हें वापस भेजा जा रहा है। गौरतलब है कि साल 2012 में रखाइन प्रांत में हिंसा हुई थी। कुछ दिनों में यह मध्य म्यांमार और मांडले तक फैल गया था। बौद्ध और मुसलमानों के बीच हुई हिंसा में तब सैकड़ों मुसलमानों की मौत हुई थी। 2013 और 2014 में भी ऐसी सांप्रदायिक हिंसा भड़की थी।
म्यांमार की वास्तविक नेता आंग सान सू की को अपने रोहिंग्या मुसलमानों समेत कई मसलों का जमीनी हल भी अभी निकालना था, पर तख्तापलट के चलते इनके समाधान अभी खटाई में हैं।
आंग सान सू का दूसरा घर है भारत: म्यांमार में लोकतंत्र की अगुआई करने वाली आंग सान सू की हमेशा भारत को अपना दूसरा घर कहती रही हैं। दरअसल सू की को भारत में कई साल तक रहने का अनुभव है। उनकी मां भारत में राजदूत रही हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के श्रीराम लेडी कॉलेज से पढ़ाई करने वाली आंग सान सू की शिमला के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडी में बाकायदा फेलो भी रही हैं। जाहिर है कि उनके अंदर भारतीय संस्कृति और लोकतांत्रिक मूल्यों का वास है। ऐसे में म्यांमार को एक सही दिशा देने की उनमें पूरी क्षमता होने की उम्मीद की जा सकती है।
हालांकि राष्ट्रपति सू की नहीं, बल्कि उनके करीबी नेता ही रहे हैं, पर म्यांमार में उन्हीं की ही तूती बोलती रही है। फिलहाल म्यांमार के लिए साल 2021 एक बार फिर अमंगलकारी सिद्ध हुआ है और इसमें भी कोई दो राय नहीं कि इस बार वहां लोकतंत्र की बहाली को लेकर पूरी दुनिया चिंतित है। विश्व की लोकतांत्रिक ताकतों को मिलकर म्यांमार में लोकतंत्र की बहाली के लिए एकजुट होकर प्रयास करने चाहिए। इसी में म्यांमार, भारत और दुनिया का हित निहित है। भारत इसमें बड़ी भूमिका निभा सकता है।
म्यांमार आसियान के 10 सदस्य देशों में से एक है। वहां के बाजार पर चीन का बाकायदा एक तरह से कब्जा है। यूरोपियन फाउंडेशन ऑफ साउथ एशियन स्टडीज के अनुसार म्यांमार के विद्रोहियों को चीन हथियार देकर भारत के खिलाफ उकसाता रहा है, जबकि भारत लोकतंत्र का समर्थक रहा है। ऐसे में म्यांमार की सेना का चीन की तरफ झुकाव न हो ऐसा पूरी तरह खारिज करना सही नहीं है। चीन की अपनी बेबसी है। जहां भारत को लोकतंत्र पसंद है वहीं उसे तानाशाही रवैया अच्छा लगता है।
वह स्वयं दक्षिण चीन सागर में दादागिरी करता है और हिंद प्रशांत क्षेत्र में विस्तारवादी नीति पर चलने का इरादा रखता है। कहा जाए तो हंिदू महासागर में वह न केवल अपनी पकड़ मजबूत करने की फिराक में रहता है, बल्कि दक्षिण एशियाई देशों को कर्जा देकर उन्हें अपनी ओर मोडऩे और भारत को पीछे धकेलने का प्रयास भी करता रहा है। चीन के साथ म्यांमार के रिश्ते को लेकर आशंकाएं चाहे जितनी हों, मगर चीन भी म्यांमार में अस्थिरता नहीं चाहेगा। साथ ही वह लोकतांत्रिक प्रक्रिया को भी बढ़ावा नहीं देना चाहेगा। यदि वह ऐसा करता है तो हांगकांग में लोकतंत्र बहाली को लेकर बरसों से चल रहे आंदोलन को उससे प्रेरणा मिल सकती है। वैसे म्यांमार के प्रदर्शनकारी आर-पार की बात कर रहे हैं। उनका मानना है कि उनका भविष्य दांव पर लगा है और वे इस बार जीत हासिल कर पाए तो उनके बच्चे शांति से रह पाएंगे। ऐसे में म्यांमार की घटना चीन के लिए असमंजस की स्थिति बन गई है।
[निदेशक, वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन]