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मुंबई। परमात्मा के अनेक गुण हैं, जिनकी तुलना में कोई भी व्यक्ति नहीं आ सकता है। वैसे ही महापुरुष ऐसे ही महान नहीं बनें। उनमें भी गुणों का भंडार भरा पड़ा है। उनके गुणों का एक भी अंश यदि हमारे जीवन में आ जाएगा तो हमारा जीवन सफल बन जाएगा। गुणों को पाना है तो गुणानुरागी बनों, लब्धि सूरीश्वरजी महाराजा जी गुणानुरागी थे। उनके जीवन काल के दौरान उन्होंने कभी किसी की निंदा नहीं की तथा अपने शिष्य प्रशिष्याओं को भी यही शिक्षा दी। आज उनकी परंपरागत में इन गुणों का साक्षात दर्शन पाया जाता है।
मुंबई में विराजित प्रखर प्रवचनकार संत मनीषी, प्रसिद्ध जैनाचार्य प.पू. राजयश सूरीश्वरजी महाराज श्रोताजनों को संबोधित करते हुए फरमाते हैं कि लब्धि सूरि महाराज वचन सिद्ध पुरुष थे। कभी कोई भी बात विचार करके नहीं बोलते थे। जो भावी में होने ाला है, वही बात उनके मुख से निकलती थी। एक दिन पूज्यश्री को आशीष देते हुए कहा था कि तुम भावी में राजा बनोगे। आज आप सभी की नजरों के समक्ष पूज्यश्री जिन शासन के महाराज बनें हैं तथा अनेकविध शासन के कार्य भी कर रहे हैं।
लब्धि सूरि महाराज ने स्तवन सज्झाय ही नहीं बल्कि परमात्मा की सुंदर सुंदर स्तुतियां भी बनाई है। उन्होंने मुनिसुव्रत स्वामी भगवान की स्तुति बनाई, जिसमें भरूच का पूरा इतिहास आ जाता है। भरूच का तीर्थ साढ़े 11 लाख प्राचीन तीर्थ है। इस तीर्थ को अश्वावबोध तीर्थ, शकुनिका विहार तीर्थ प्रायच्छित्त तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है।
पूज्यश्री भरूच के इतिहास का वर्णन करते हुए बताते हैं। एक अश्व को बोध करने के लिए मुनिसुव्रत स्वामी भगवान एक ही रात में 60 योजन का विचार करके पधारे। परमात्मा में कैसी करुणा है। कैसी दया भाव है। कहते हैं कि भगवान यदि भरूच नहीं पहुंचते तो यज्ञ में अश्व को खत्म कर देते। परमात्मा के प्रतिबोध से अश्व (घोड़े) ने अनशन करने का निर्णय किया। आखिर में अश्व अनशन करके सद्गति को पाया। उसी की याद में भरूच में अश्वावबोध मंदिर बना है।
दूसरा भी इतितहास इस प्रकार है। एक बार भरूच का व्यापारी किराने का कुछ सामान लेकर लंका के राजदरबार में आया। राजकुमारी सुदर्शना भी उस समय वहां उपस्थित थीं। अचानक व्यापारी को छींक आई। छांक के दौरान व्यापारी के मुख से 'नमो अरिहंताणंÓ शब्द निकले। जैसे ही ये शब्द सुदर्शना के कानों में पड़े। वह मूच्र्छित खाकर गिर पड़ी। कहते हैं कि जिनके रोम रोम में नवकार है उनका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता।
दादा गुरुदेव लब्धि सूरि महाराज के अंतिम क्षणों में जब डॉक्टर ने स्टेस्थोस्कोप से देखा तो उनकी हर एक धड़कन से एक ही आवाज आ रही थी 'नमो अरिहंताणंÓ, जिनके हृदय में है नवकार, उनका हो जाता है बेड़ा पार।
राजकुमारी को होश आया। जाति स्मरण ज्ञान से उसने देखा कि वह पिछले भव में चील थी। किसी शिकारी के तीर से वह घायल होकर गिर पड़ी थी, तब किसी मुनिराज से उसे नवकार सुनाकर समाधि पहुंचाई थी, जिसकी वजह से वह लंका की राजकुमारी बनी है। राजकुमारी ने अपने पिता को अपने पूर्वभव की बात बताकर जिस जगह पर वह घायल होकर गिर पड़ी थी, उसी स्थान पर उसने शकुनिका विहार के नाम से मंदिर बनवाया।
आज भी भरूच में वह मंदिर है। उस मंदिर का जिर्णोद्धार पूज्यश्री के हाथों हुआ है एवं भारत का सबसे प्रथम भक्तामर मंदिर भी वहीं पर बना है। कहते हैं कि जिस प्रकार शत्रुंजय शिखरजी-गिरनार आबू मंदिर का उल्लेख शास्त्रों में बताया है, उसी प्रकार भरूच मंदिर का भी उल्लेख 'जग चिंतामणिÓ सूत्र में प्रसिद्ध है।
लोग जिस प्रकार दीपावली के चोपड़े में गौतम स्वामी की लब्धि हो, जो इस तरह लिखते हैं। वैसे लब्धि सूरि महाराज में भी अनेक लब्धि थी किसी आदमी आदमी को यदि बिच्छु ने डंक मारा हो तो दादा गुरुदेव उस डंक पर हाथ फिराते थे तो उनका दर्द चला जाता था। दादा गुरुदेव के नाम से जो भी कार्य करते हैं, उनकी उन्नति होती है। आप भी इनके नाम का स्मरण करके लब्धि की लब्धि को पाकर शीघ्र आत्मा से परमात्मा बनें।