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अहमदाबाद। परमात्मा महावीर की अंतिम देशना रूप उत्तराध्ययन सूत्र वह वैराग्य का खजाना है। संसार से विरक्त होकर जो हमेशा आराधना-साधना में मस्त रहने वाले तथा जो जीवन में कभी मान की आशा नहीं रखते थे ऐसे हमारे परम दादा गुरूदेव श्री लब्धि सूरीश्वरजी महाराजा जब उनकी अंतिम अवस्था नजदीक आई तब वे इस उत्तराध्ययन सूत्र को मुखपाठ करने का प्रारंभ किया। इस वृद्धावस्था में ऐसे सूत्र को जीवन का एक महान स्तान दिया इसके पीछे भी एक रहस्य है कि महापुरूषों अपने भवांतर की सद्गति की बात को दृढ़ करने के लिए ही ऐसे महान सूत्र को कंठस्थ करते है। अहमदाबाद में बिराजित प्रखर प्रवचनकार, संत मनीषि, गच्छाधिपति प.पू.आ.देव राजयश सूरीश्वरजी महाराजा श्रोताजनों को संबोधित करते हुए फरमाते हैं कि इस अध्ययन में चित्र एवं संभूति मुनि के अनेक भवों की प्रीति बताई है। चित्र महामुनि के रूप में अपनी आराधना में मस्त बनकर जीवन जी रहे है जबकि संभूति मुनि नियाणुं करके चक्रवर्ती पद को पाया है। प्रवचन की धारा को आगे बड़ाते हुए पूज्श्री फरमाते है राग महाभयंकर है। राग में फंसने वाला व्यक्ति अनेक भवों में भटकता है जबकि राग से वैरागी बना हुआ वीतराग पद को प्राप्त करता है। आको रागी बनना है या वीतरागी? रागी बनोंगे तो पुत्र-पत्नी के मोह में फंसकर अनेक भवों में चक्कर ही लगाने पड़ेंगे। वीतरागी बनना है तो पुत्र-पत्नी जड़ पदार्थ विगेरे सभी का मोह छोडऩा पड़ेगा तभी आप वीतरागी बन पाओंगे। दूसरे गांव में जाने के लिए आप ट्रेन में बैठते हो जैसे ही आपका मुकान आता है आप उस ट्रेन से तुरंत उत्तर जाते ही ठीक, इसी तरह जो सज्जन है वे राग करने वाली चीजों के साथ ज्यादा संबंध में नहीं रखते है। इतिहास में हमने कितने दृष्टांत देखे है जिनकी एक दूसरे के साथ खूब प्रीति थी तथा एक दूसरे के साथ अनेक भवों में साथ भी रहे है। गौतम स्वामी एवं भगवान महावीर भी अनेक भवों में साथ रहे। नेम राजुल भी नौ भव साथ रहे। पूज्यश्री फरमाते है किसी भी व्यक्ति पर ज्यादा राग करना ठीक नहीं है मानलो, किसी से राग हो भी गया तो संसाकर में रहकर कमल की तरह निर्लेप बनकर जीवन जीना चाहिए। यदि आपका किसी के साथ लिलिट से ज्यादा राग हुआ तो वह आपको अनेक भवों में परिभ्रमण करवाकर मोक्ष की प्राप्ति में बाधक बनेगा।चित्र एवं संभूति मुनि अनेक भवों से साथ है इन दोनों मुनिओं की आराधना एवं तप से पूरा नगर उनसे प्रभावित हुआहै। यह बात आगे आगे फैलती गई और एक दिन सनत् चक्रवर्ती के कानों यह बात पहुंची। उनके मन में लालसा जगी कि इन मुनिओं का दर्शन करने जैसा है। कहते है आप जिस प्रकार से संयम जीवन जीते हो आपकी आराधना क्रिया देखकर लोग प्रभावित होते है। पूज्यश्री फरमाते है मात्र लोग प्रभावित ही नहीं होते उन्हीं के पथ पर चलने के लिए लोग तैयार हो जाते है। कोई व्यक्ति संसार से विरक्त बनकर संयम ग्रहण करे तो कितनी अच्छी बात है। सनत् चक्रवर्ती अपनी स्त्री रत्न के साथ मुनिओं के दर्शन के लिए आ। उससमय संभूति मुनि के मन में खराब भाव नहीं थे भवितत्वयता देखो, वंदन की विधि चालु हुई। स्त्री रत्न सुनंदा के मस्तक के केश संभूति मुनि के चरण को लगे जैसे ही सुनंदा के केश का स्पर्श हुआ संभूति के रोम-रोम में झुनझुनी शुरू हुई। शास्त्रकार महर्षि फरमाते है बात छोटी है मगर परिणाम कितना बूरा आता है छोटी बात खेल का स्वरूप ही बदल डालता है।
संभूति मुनि के मन में विचार आया। एक स्त्री के केश का स्पर्श इतना आनंदित करता है तो उस स्त्री के साथ यदि मेरा संग हो जाए तो ओर भी आनंद दायक बनेगा। संभूमिमुनि ने उसी समय नियाणा किया कि मेरी आराधना एवं तप का फल जो भी हो मुझे इस स्त्री रत्न के पति बनने का सौभाग्य प्राप्त हो। इस तरह के वचन सुनकर चित्र मुनि को विचार आया अरे। मोह अत्यंत दुर्जय है। मेरा भाई आगम के जानकर होने के बावजूद जानबूझकर इस संसार समुद्र में गिर रहा है यह सोचकर चित्र मुनि संभूति मुनि को बोध हेतु फरमाते है इस तप का फल चिंतामणि रत्न ही फिर भी तुं घास का तिनका मांग रहा है? पूज्यश्री फरमाते है जो व्यक्ति मोक्ष के सुख को छोड़कर क्षणिक भोगों की आकांक्षा रखते है वे, चिंतामणी रत्न का त्याग करके कांच के टुकड़ु को स्वीकारने के लिए तैयार है। चित्रमुनि बहुत कुछ समझाने पर भी संभूति मुनि नियाणा का त्याग करने को तैयार नहीं हुए आर नियाणा के मुताबिक मरकर ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती बनें। और वहां से मरकर नरक में गए।
कभी भी सुख का पल आए इस प्रकार का नियाणा करना नहीं। स्त्री का राग-भोग सुख वगैरह हमारे महादुश्मन है। वे हमें कुछ पल ही सुख देंगे। उसके बाद तो हरके भव में परिभ्रमण कराते हुए दुर्गति में ही ले जाएगा। बस इन जड़ पदार्थ तथा अपने स्वजनों का राग छोड़कर वीतराग से राग करके मोक्ष सुख की प्राप्ति करो यही सुभाशिष।