अहमदाबाद। गच्छाधिपति पूज्य गुरुदेव राजयश सूरीश्वरजी म.सा. का 77वें वर्ष में मंगल प्रवेश किसी भी साधु का सच्चा जन्म दिन तो उसका दीक्षा दिन ही है, परंतु दीक्षा तथा संयम जीवन का आधार स्वयं का जन्मदिन ही है। कहते हैं, जन्मदिन यदि एक पाया है तो संयम जीवन एक सच्चा महल है। गच्छाधिपति पूज्यश्री ने 19 वें वर्ष में दीक्षा ली थी आज चैत वद 20 2077 में 77 वें वर्ष में प्रवेशकर कर रहे है। इससे उनका समय जीवन भी लगभग 58 वर्ष का हुआ है। पूज्यश्री 58 वर्ष के संयम में 23 वर्ष अपने गुरू की छत्र छाया में रहे। पूज्य गुरूदेव के कालमर्ध स्वर्गगमन के बाद सविशेष रूप से अपने शिष्य-शिष्या वर्ग की तथा जिनशासन की जवाबदारियां पूज्य गुरूदेव पर आई।
पूज्य गुरूदेव विक्रमसूरीश्वरजी म.सा. ने पूज्यश्री को शास्त्र ज्ञान-व्यवहारिक ज्ञान देकर उन्हीं की हाजिरी में संघ तथा समाज की अनेक जवाबदारियां पूर्व से ही सौप दी थी। कितने लोग आचार्य विक्रम सूरीश्वरजी म.सा को कहते थे राजयश विजय ने आपको निवृत्त कर दिया है।
पूज्यों की कृपा से आचार्य राजयश सूरीश्वरजी जैन शास्त्रों के साथ तमाम धर्म के विकास हुआ था। इसी कारण जैन शास्त्रों के साथ तमाम धर्म के शास्त्रों का पूज्यश्री ने अभ्यास किया था तथा व्यवहारिक ज्ञान उन्होंने एफ.वाई.एस.सी का रास मुंबई में ही किया था। देखा जाए तो व्यापक दृष्टि से खुद के समुदाय का तथा जिन शासन के अनेक महत्वपूर्ण कार्यों पूज्यश्री ने किए जिससे समस्त भारत में उनकी कुछ अलग ही प्रतिभा पड़ी।
प्राचीन संस्कृति के हिमायती गच्छाधिपति पूज्य गुरूदेव के द्वारा नव से दश जैन महान तीर्थों के उदधर हुए। इस तीर्थों में जैनों के साथ अचैनों को भी मिले ऐसी अनेक भोजनाएं भी बनाई थी। जहां जहां श्रीमंत श्रावको ने नूतन जिनालयों के निर्माम की आवश्यकता थी वहां खुद के शिल्प की विलक्षण दृष्टि से सुंदर जिनालयों का निर्माण करवाया। शिक्षण तथा मूल्य शिक्षण तथा संस्कारों का पूज्यश्री की हिमायती होने से अनेक स्थलों पर अनेक शालाओं का निर्माण किया। परंतु हरेक स्थल पर भारतीय संस्कृति की प्रतिष्टा ज्यादा दो उसका लक्ष्य रखा। इसके अलावा अनेक स्थलों पर जहां आवश्यकता भी वहां चिकित्सा का अनेक कार्यों में सहकार तथा मार्गदर्शन भी दिया। अब तक पूज्यश्री ने लगभग एक लाख कि.मी. जितना तो विहार किया है। इस पाद यात्राओं को पूज्यश्री ने महान संस्कार यात्रा तथा संस्कृति यात्रा का स्वरूप दिया। इतने कार्यों होने के बावजूद उनकी आंतर निर्मलता से सभी प्रभावित थे। सदा स्मित-हास्य तथा हलवाश पूज्यश्री का पर्याय है। शीघ्र भक्ति-सुंदर भक्ति काव्यों की रचना सहित पूज्यश्री ने 125 से भी ज्यादा पुस्तके लिखी।
बालको को जीवंत जिज्ञासा से अलंकृत किया। वैसे तो पूज्यश्री समस्त विश्वस की शांति के मार्गों को हमेशा विचारते एवं बहाते रहे है। इसके लिए अहिंसा-शाकाहार पर्यावरण के संरक्षण के लिए आंदोलन भी जगाते रहे और उसमें सफलता भी पाई।
शास्त्र चिंतन-वांचन तथा विज्ञान की खिलती दुनिया से हमेशा परिचित रहे हैं। एक अद्भुत वक्ता के रूप में हताश एवं निराश बनें लोगों में भी नये प्राणों का संचार करते है।
उनके अब तक के नेतृत्व में लगभग 250 से 300 साधु-साध्वीजी मोक्ष मार्ग की साधना कर रहे है। पूज्यश्री हमेशा कहते है एक-दूसरे धर्म के सिद्धांतों अथवा मान्यता एक दूसरे से विरूद्ध हो तो उसके लिए परस्पर-वाद विवाद एवं लड़ाई करने की जरूरत नहीं है। परंतु अब भयंकर आतंकवाद-स्वार्थवाद-हिंसावाद-आत्महत्या तथा क्रूरता के आगे तमाम धर्मों को एक बनने की जरूरत है तथा विश्व भर के स्वार्थमय राज्यकत्र्ताओं की शान ठिकाने लाकर विश्व में मैत्री भाव का सर्जन करने की जरूरत है।
पूज्यश्री की राष्ट्र संचालन की भी विलक्षण सूझ एवं चिंतन है। आज समस्त भारत के भक्तों उनमें महान भावि के सर्जन के लिए नजर बिछाकर बैठे है।
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