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अहमदाबाद। उत्तराध्ययन सूत्र के एक एक शब्द आत्मा में शुद्ध परिणति का अभियान चलाती है। आज के इस अध्ययन में प्रश्न उठा है वीतरागीता से जीव क्या प्राप्त करता है? कहते है सम्पूर्ण कर्मो के क्षय से वीतरागीता प्राप्त होती है। आप अपनी जिंदगी का इन्वेस्टमेंट, आप अपने समय का इन्वेस्टमेन्ट तथा अपनी शक्ति का इन्वेस्टमेन्ट राग की वृद्धि के लिए करोंगे तो समझ लेना कि आप निष्फलता की ओर प्रयाण कर रहे हो। राग परिवर्तनशील है आप किसी भी व्यक्ति के ऊपर राग करोंगे, राग अनेक द्वेषों को उत्पन्न कराती है, जिसने परमार्थ को समझा है, वह व्यक्ति अपने जीवन की हर प्रवृत्ति में जैसे कि शिष्य के संबंध में, परिवार के संबंध में, अनेक आत्माओं के संबंध में वीतरागीता को लक्ष्य में रखकर सावधानीपूर्वक संबंध निभाता है।
अहमदाबाद में बिराजित प्रखर प्रवचनकार, संत मनीषि, गच्छाधिपति प.पू.आ. देव राजयश सूरीश्वरजी महाराजा श्रोताजनों को संबोधित करते हुए फरमाते हैं कि परमार्थ समझने वाला राग के प्रवाह में भी वीतरागीता के प्रवाहपूर्वक अपना जीनव गुजारता है। दूध में पानी डाला हो कुछ हद तक पानी डाले तो दूध ही लगेगा लेकिन कुछ ज्यादा ही पानी डाल दे तो उस दूध का रंग ही बदल जाता है। इसी तरह महापुरूषों भी संसार के सुखों में मस्त है, चक्रवर्ती भी अपनी ऋद्धि-सिद्धि को भुगनते है। फिर भी अंदर से प्रतिक्षण वे जागृत है क्योंकि उनमें वीतरागीता का प्रवाह बह रहा है।
स्नेह का बंधन सबसे बड़ा बंधन है। संस्कृत का एक काव्य है स्नेह मूलानि दु:खानि सभी दु:खों का मूल स्नेह है। किसी को व्यक्ति के ऊपर मोह हो जाता है तो किसी को पदार्थ पर मोह हो जाता है। व्यक्ति के ऊपर मोह एवं पदार्थ के ऊपर मोह ही सभी दु:खों का कारण है, पदार्थ नश्वर है। ये बात समझकर मानवी इन पदार्थ के ऊपर का मोह हष्टायेगा तो उसका राग कम हो जाएगा हरेक व्यक्ति अपने अपने कर्म के मुताबिक अपना जीवन जीता है कमल कीचड़ में रहकर भी उस कीचड़ से अलिप्त है इसी तरह मानव भी संसार के रंग राग में रहकर भी अलिप्त जीवन जी सकता है। एक सुंदर दृष्टांत से शास्त्रकार महर्षि हमें बताते है। एक मानव के हाथ में दो प्रकार के गोले है एक चिकनी मिट्टी का है तो दूसरा रेती का गोला है। उस चिकनी मिट्टी के गोले को दीवाल पर फेंके तो वह चिकना होने के कारण वह उस पर चिपक जाएगा तथा रेती का गोला दीवाल को छूकर उसे कण बिखर जाएगें बस, राग द्वेष के परिणाम मिट्टी के गोले की तरह आत्मा को चिपक जाते है जबकि रेती के गोले की तरह महापुरूष संसार के रंग राग में फंसते नहीं है संसार में रहकर भी भौतिकता से, राग से, वासना से निर्लेप जीवन जीते है।
पूज्यश्री फरमाते है राग-प्रेम वह स्नेह है वहां संबंध है जहां संबंध है वहां संयोग, जहां संयोग है वहां वियोग है। संयोग वह वियोग की पूर्व भूमिका है स्नेह के संबंध में कुछ फरक नहीं आएगा लेकिन आयुष्य एक दूसरे का अलग होने से वियोग तो होगा ही। सुख-दु:ख, संपत्ति-विपत्ति, संयोग वियोग ऐसे द्वनद्व चक्रों से ही संसार भरा है इन द्वनद्व से वीतरागीता का आदर्श बताया है।
स्नेह भयंकर है तो तृष्णा-इच्छा महाभयंकर है। किसी भी चीज की इच्छा हमें भयंकर परिश्रम कराती है हिंसा कराती है झूठ बुलवाती है चोरी करवाती है विषय सुखों में लंपट बनाती है परिग्रह के पीछे पागल बनाती है। मम्मण शेठ पूरी जिंदगी मेहनत करके सिर्फ कमाकर इकट्ठा ही करता रहा उसे भोग न सका। ऐसी इच्छा-तृष्णा से क्या मतलब जो सुख देने के बजाय दु:ख का कारण बनें।
स्थूलभद्रमुनि एक ही क्षण में वैरागी बनें। पिता की मृत्यु के बाद राजा ने स्थूलभद्रजी को मंत्री पद पर बिठाने हेतु आमंत्रण भेजा। स्थूलभद्रजी के मन में आया कि यह मंत्री पद ही मेरे पिता की मृत्यु का कारण बनी है तो ऐसे पद को क्यों स्वीकारना? अंतर में स्फुरणा हुई कि संसार में वीतरागीता ही सत्यतत्व है शाश्वत है इस प्रकार बारह बारह वर्ष तक वेश्या के घर में रहकर, वेश्या में आसक्त होने के बावजूद संसार से विरक्त बनें। और संयम जीवन को अंगीकार किया।
शास्त्रकार महर्षि फरमाते है वीतरागीता से जीव स्नेह एवं मृष्णा के अनुबंधनों को विच्छेद करता है और फिर शब्द स्पर्श रस रूप एवं गंध से भी विरक्त बनता है बस, बारह भावना को अपने ह्रय मंदिर में बिठाकर आत्मा से परमात्मा बनें।