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मुंबई। एक युवान संत के पास जाकर कहने लगा, साहेब! मैं कुछ उलझन में पड़ हुआ हूं। कृपा करके, आप मेरे सवाल का जवाब दीजिए। संत ने कहा कि युवान! तुम्हारी जो भी जिज्ञासा है, उसे आप खुल्ले दिल से मुझे कहिए। जरूर मैं कुछ न कुछ मार्गदर्शन करूंगा। युवान ने कहा, साहेब! मानव जीवन में आनंद एवं प्रसन्नता की प्राप्ति किस प्रकार से करना? मेरा मन जल्दी विक्षिप्त वन जाता है। आप कोई ऐसा उपाय बताइए जिससे मेरा मन विक्षिप्त न बनें।
मुंबई में बिराजित प्रखर प्रवचनकार संत मनीषि, प्रसिद्ध जैनाचार्य प.पू.राजयश सूरीश्वरजी महाराजा श्रोताजनों को संबोधित करते हुए फरमाते है सत ने मुस्कुराते हुए कहा, बेटा! तुझे मेरा भूख कैसे लग रहा है? साहेब! आनंद एवं प्रसन्नता से भरा हुआ नजर आता है। परंतु आपको इस प्रकार की सिद्धि किस तरह से प्राप्त हुई? संत ने कहा कि बेटा! परिस्थिति कैसी भी क्यों न हों, हमें अपने मन को विचलित नहीं करना चाहिए। मन की प्रसन्नता सदा के लिए टीके रहे उस बात का ध्यान रखकर जीवन जीना चाहिए।
पूज्यश्री फरमाते हैं कि कितने लोगों का एक स्वभाव सा बन गया है। कि वह व्यक्ति जहां भी जाता है वहां अपनी दु:ख की कथनी सुनाए बिना नहीं रहता है। हमारा आपसे एक प्रश्न है, आप लोगों के पास अपने दु:ख की फरियाद लेकर जाते हो। क्या फरियाद करने से आप दु:ख से मुक्त बन पाओंगे? अथवा तो आपका दु:ख हल्का हो जाएगा?
मानलो! आप बहुत सुखी हो? इस सुख के बीच आप दु:खी बनकर रह पाओंगे? नहीं क्योंकि ऐसा कार्य आपके लिए कठिन है। कहते है सुख का अनुभव करने वाला मानव दु:ख को भूल जाता है। दु:ख की फरियाद मानव को कमजोर बना देता है। इसीलिए सुख एवं आनंद को मिलाने के लिए हमें दु:ख की फरियाद करना बंद कर देना चाहिए।
दो मित्र रास्ते से पसार होकर बाजार की ओर जा रहे थे। बातों में इतने मशगुल हुए कि कहां निकले पता ही नहीं चला अचानक निलेश का हाथ अपने पेंट के जेब में गया। जोर से चिल्लाकर कहा, अरे! ये क्या? ले गया। जिसने मेरे पैसे लिये हो उसका बूरा हो, उसका सत्यनाश हो इस तरह निलेश गाली देते हुए जा रहा था उसी बीच निलेश ने सुरेश से कहां, सुरेश! तेरे पैसे तो सलामत है ना? जरा जेब में हाथ डालकर देख ले। सुरेश ने जेब में हाथ डाला तो निलेश की तरह उसकी भी जेब खाली थी परंतु उसके भुख पर वैसी ही प्रसन्नता थी।
सुरेश ने निलेश से कहा, मेरी परिश्रम की ये कमाई थी जिसके भी हाथ लगा हो उसका भला हो। परमात्मा उसे सद्बुद्धि दे कि वह इन पैसों का उपयोग पदार्थ लिए करे।
प्रवचन की धारा को आगे बढ़ाते हुए पूज्यश्री फरमाते है इस घटना का तात्यर्प हमें ये समझना है कि घटना एक सरीखी थी परंतु दोनों के मन की भावना घटना पर आधारित नहीं है। बल्कि हमारे मन पर आधारित है।
जीवन में दु:ख हरेक को आता है। दु:ख आने पर रोने से कुछ नहीं होगा उसका सामना करने पर दु:ख अपने आप कम हो जाता है। जब भी हमारे जीवन में दु:ख के प्रसंग आते है, उस समय हमें महापुरूषों को याद करना है। महापुरूषों के जीवन में अनेक कष्ट भी आए, अनेक उपसर्ग भी आए, उन्होंने इन सभी कष्टों का सामना हंसते-हंसते स्वीकार किया। बस ऐसे दु:ख के प्रसंगों में यदि मानव हंसते हुए इन दु:खों को सहन करेगा तो वह सुखी जीवन जीकर शीघ्र आत्मा से परमात्मा बन पाएगा।