सावन के महीने में केसरिया वस्त्र पहने अपने कमण्डल या कांवड़ में पवित्र नदियों का जल लेकर भगवान शिव को चढ़ाने के लिए होड़ लगाते शिव भक्त ही कावडिय़ा कहलाते हैं। इस साल भी 25 जुलाई से शुरू हो रहे सावन के महीने में कोरोना प्रोटोकॉल का पालन करते हुए कुछ राज्यों ने कांवड़ यात्रा करने की अनुमति दी है। हिंदू धर्म में विशेषतौर पर उत्तर भारत में कावंड़ यात्रा सैकड़ों वर्षों से चल रही है। कांवड़ यात्रा की शुरूआत और महात्म के बारे में कई कहनियां और किंवदंतियां प्रसिद्ध हैं। आइए जानते हैं कांवड़ यात्रा की शुरुआत के बारे में...
पहली कथा : कुछ विद्वान भगवान परशुराम को पहला कांवड़ यात्री मानते हैं। उनके अनुसार परशुराम जी ने पुरामहादेव को प्रसन्न करने के लिए गढ़मुक्तेश्वर से गंगा जल ले जाकर भगवान शिव का जलाभिषेक किया था। इसे ही हिंदू परंपरा में कांवड़ यात्रा की शुरूआत माना जाता है।
2- दूसरी कथा : इस कथा के अनुसार कावंड़ यात्रा की शुरूआत श्रवण कुमार ने त्रेता युग में की थी। कथा के अनुसार श्रवण कुमार के अंधे माता-पिता ने हरिद्वार में गंगा स्नान की इच्छा व्यक्त की। तो श्रवण कुमार ने अपने माता पिता को कंधे पर कांवड़ में बिठा कर पैदल यात्रा की और उन्हें गंगा स्नान करवाया। लौटते समय अपने साथ गंगा जल लेकर आए, जिससे उन्होंने भगवान शिव का अभिषेक किया।
तीसरी कथा : कांवड़ यात्रा को लेकर प्रचलित तीसरी कथा का संबंध भगवान शिव के परम् भक्त रावण से है। कहा जाता है कि समुद्र मंथन से निकले विष का पान करने से भगवान शिव नील कंठ कहलाए, लेकिन विष के प्रभाव से शिव जी का गला जलने लगा तब उन्होंने अपने परम् भक्त रावण का स्मरण किया।
रावण ने कावंड़ से जल लाकर भगवान शिव का अभिषेक किया, जिससे शिव जी को विष के प्रभाव से मुक्ति मिली। कुछ विद्वान इस घटना को ही कांवड़ यात्रा की शुरुआत मानते हैं।
Head Office
SAMVET SIKHAR BUILDING RAJBANDHA MAIDAN, RAIPUR 492001 - CHHATTISGARH