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अहमदाबाद। आज के युग में सब कुछ प्री करने का प्रवाह चल रहा है। विवाह के पूर्व आमंत्रण देने के लिए प्री-वेडिंग शूट्स, कोई दीक्षा लेते है तो उनका प्री दीक्षा शूटिंग आदि का युवा पीढिय़ों में जबरदस्त प्रवाह चल रहा है। उसी प्रवाह में आजकल जैनों के चातुर्मास की वेला की पूर्व तैयारियां आरंभ हो चुकी है। प्राय: सभी जैन श्रवणी भगवंत अपने-अपने चातुर्मासिक स्थलों में प्रवेश कर चुके है। चातुर्मास सामीव्य का भव्य वातावरण बन चुका है।
सर्वतोमुखी प्रतिभा संपन्न, गीतार्थ गच्छाधिपति जैनाचार्य प.पू.आ. देव राजयश सूरीश्वरजी म.सा. ने श्रोताओं को संबोधित करते हुए फरमाया कि जिन पूजा एवं जिन वचन के विरह से अपनी जीवन रूपी गाड़ी पाटे पर से उतर जाती है। उसे सही राह पे लाने के लिए जिन पूजा तथा जिनवाणी, श्रवन करना अत्यंत अनिवार्य है। पूज्यश्री ने फरमाया कि उत्तराध्यन सूत्र एक जीवन शास्त्र है। केवल साधुओं को ही नहीं भाव से और गहराई से सोचे तो श्रावकों के लिए भी अत्यंत उपयोगी है। उत्तराध्ययन सूत्र के बत्तीसवें अध्ययन में शास्त्रकारों ने फरमाया है कि 
नाणस्स सव्वस्स पगासणाए अन्नाणमोहस्य विवज्जणाए।
 रागस्स दोसस्स य संखएणं एगंतसुभ्खं समुवेइ मोक्खं।।
अर्थात् अज्ञान और मोह के वर्जन से, राग और द्वेष के संक्षेप से ज्ञान के दिव्य प्रकाश से एकांत सौख्य ऐसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। मोक्ष प्राप्ति के मार्ग पे प्रकाश डालते हुए पूज्यश्री ने फरमाया कि अज्ञानियों से दूर रहना, गुरू और वृद्धों की सेवा करना, तथा एकांत में सज्झाय (स्वाध्याय), ध्यान, सूत्र और अर्थ के चिंतन आदि करने से मोक्ष सुख को पाया जा सकता है। जिशासन में गुरू सेवा का बहुत महत्व है। प्रत्येक कदम पे गुरू सेवा अत्यंत अनिवार्य है। श्रवण-श्रमणी भगवंत प्रात: उठकर अपनी आवश्यक क्रियाओं में सब आज्ञा प्राप्त करने के लिए पश्चात् अपने गुरू भगवंत के पास जाकर बहुवेल संदिसहुं का आदेश मांगते है। इस आदेश द्वारा श्रमण-श्रमणी भगवंत अपने गुरू भगवंतों के पास से श्वासोश् वास लेने जैसी राभसीक क्रियाओं हेतु भी आज्ञा प्राप्त करने उत्सुक होते है।
किसी जिज्ञासु का यह प्रश्न रहा कि उत्तराध्ययन सूत्र में मोक्ष सुख की प्राप्ति के लिए गुरू सेवा बताई हो प्रभु सेवा क्यों नहीं बताई? इस प्रश्न का जवाब फरमाते हुए पूज्य गुरूदेव ने कहा कि परमात्मा तीर्थंकर के भव में भी सर्वप्रथम गुरू पद प्राप्त करते है तत्पश्चात् वे परमात्मा बनते है। जय वीयराय सूत्र में भी जग गुरू शब्द से गुरू गौतम को नहीं बल्कि परमात्मा को जगद् गुरू के रूप में संबोधित किया गया। इसका अर्थ यह भी निकाला जा सकता है कि गुरू और वृद्धों की सेवा में परमात्मा की सेवा आ गई। परमात्मा की सेवा चार निक्षेपों द्वारा बताई गई है नाम निक्षेप- परमात्मा के नाम का जाप करना, स्थापना निक्षेप- प्रतिमाजी की पूजा कोई कारणसर प्रतिमाजी की पूजा करने वालों को मूर्तिपूजक संप्रदाय का नाम दे दिया गया परंतु हम मूर्ति की नहीं प्रभु गुण के पूजक है। जब आचार्य भगवंत अपनी विशिष्ट साधना शक्ति द्वारा मूर्ति को मंत्रित करते है तब वह पवित्र प्रतिमा स्वरूप बन जाती है। द्रव्य निक्षेप-तीर्थंकर की पूजा अर्थात् जब संघ स्वामीवात्सल्य कराते है तब यही भाव होते है कि इन आत्माओं में कोई तीर्थकर की आत्मा, सिद्धात्मा, गणधर की आत्मा भी हो सकती है। इन सभी की पूजा भी द्रव्य पूजा कहा जाता है। भाव निक्षेप- तल्लीन होकर परमात्मा के सर्वगुणों को निरखना, जानना। प्रभु समवसरण में मधुर वाणी द्वारा देशना दे रहे हो ऐसी अनुप्रेक्षाओं से भाव निक्षेप होता है इस तरह से जगत् गुरू फरमात्मा की सेवा हो सकती है।गुरू यानि सद्गुरू जो अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाये वही सदगुरू कहलाते है। जिनकी कृपा से, जिनके उपदेश से सम्यक्त्व प्राप्त हुआ है। उन्हें सदगुरू कहते है। श्रावकों के लिए गुरू कौन? बाल्यावस्था में जन्म लेने के साथ ही माता-पिता के रूप में गुरू मिले है। प्रत्येक श्रावक का यह कर्तव्य है कि जब तक माता-पिता है तब तक उनकी खूब सेवा करें। पुण्य से शायद लक्ष्मी की प्राप्ति हो सकती है लेकिन यदि माता-पिता की सेवा ना की हो, उनके अंतर के आशीर्वाद ना पाये हो ऐसी लक्ष्मी का कोई अर्थ नहीं। तीर्थ यात्रा प्रभु पूजा आदि बहुत भक्ति भाव से किये हो परंतु माताृ-पिता की सेवा नहीं की हो तो यात्रा-पूजा आदि सब शून्य के बराबर ही है। जैसे अंक बिना के शून्य का कोई महत्व नहीं होता ठीक वैसे ही माता-पिता की सेवा बिना की गई प्रभु पूजा एवं तीर्थ यात्रा शून्य समान है। बस गुरू सेवा में, वृद्धों की सेवा से, जगत् गुरू परमात्मा की सेवा से शीघ्रातिशीघ्र एकांत सौख्य मोक्ष की प्राप्ति हो।