अहमदाबाद। कोई भी पर्व, त्यौहार, उत्सव, महोत्सव एक आनंद, उमंग उत्साह की लहर साथ लाता है। पढ़ाई तो विद्यार्थी प्रतिदिन करते है। वैसे ही गुरु भगवंत की सेवा, उनकी आज्ञा का पालन प्रतिदिन, प्रतिपल करते हैं पर आज के शुभ दिन-गुरू पूर्णिमा के दिन अपने गुरूओं को-उपकारियों को विशेष रूप से याद करके उन्हें ह्रदय के अंतर भाव से वंदन-नमन करके उनकी विशेष कृपा को प्राप्त करें।
श्रीलब्धि-विक्रम गुरू कृपा प्राप्त, गीतार्थ गच्छाधिपति पू.आ.देव राजयशसूरीश्वरजी म.सा. ने उपस्थित गुरू भक्तों को संबोधित करते हुए फरमाया कि आज के शुभ दिन विनय और समर्पण के स्वामी श्री गौतम स्वामी को भावपूर्वक स्मृति सहित नमन करना। आज इस्ट्रॉस्पेक्शन करना है। कि जन्म से लेकर आज तक के अपने विकास पर एक नजर करना हे। अपने जीवन विकास पर नजर करते करते लगता है कि पूर्वाचार्यों से महर्षियों से ज्ञानियों से कितना कुछ सीखते आये है। गुरू की व्याख्या समझाते हुए पूज्यश्री ने कहा कि गुरू वहीं है जो अपने तन को, मन को, आत्मा को कर्मों से हल्का कर दें। भले ही गुरू शब्द का एक अर्थ भारी होता है परंतु वे हमें फूल की भांति हल्का करने की क्षमता रखते है लौकिक दृष्टि से आज गुरू पूर्णिमा का महान पर्व है लेकिन जैन श्रवण श्रमणी-श्रावक-श्राविकाओं के लिए तो निरंतर गुरू पूर्णिमा ही है। जैन धर्म में तो प्रत्येक क्रिया, प्रत्येक कार्य गुरू की आज्ञा लेकर ही करनी होती है। गुरू ही सर्वस्व है ऐसा मानकर प्रत्येक क्रिया करने के पूर्व गुरू की आज्ञा लेकर करते है।
गुरू एक अद्भुत तत्व है, उनकी जितनी हो सके इतनी सुंदर आराधना और उपासना करनी चाहिए। गुरू की महिमा एवं गरिमा का वर्णन करते हुए शास्त्रकार भगवंत फरमाते है कि ध्यान में स्थिरता-निश्चलता प्राप्त करने के लिए गुरू मूर्ति का आलंबन ले, पूजा में यदि आगे बढऩा हो तो गुरू की अद्भुत सेवा, गुरू के मुख से निकल एक भी शब्द सामान्य नहीं होता किंतु मंत्र रूपी होता है अत: कोई भी मंत्र सिद्धि प्राप्त करनी हो तो सर्वप्रथम गुरू की आज्ञा का पालन करें, मोक्ष सुख की प्राप्ति वो गुरू की परम कृपा का ही फल है। जैनों को रास्ते पे आते-जाते कहीं भी श्रमण-श्रमणी भगवंत दिखे तो मत्थएण वंदामि कहकर मस्तक झुकाकर भावपूर्वक नमन-वंदन करते है। इस बात पर किसी जिज्ञासु ने प्रश्न किया क िक्यू मस्तक झुकाकर ही नमन करना? ह्रदय के भावों से क्यों नहीं बताया गया? इस प्रश्न का समाधान देते हुए पूज्यश्री ने फरमाया कि ह्रदय तो संवेदनशील और लाग्णी वाला होता है अत: वह तो सरलता से सहजता से झुक ही जाता है लेकिन ये मस्तक तर्क-विर्तक-कुर्तकों को पैदा करने वाला है अत: मस्तक द्वारा वंदन करना है।
कितने ही लोग पूछते है कि गुरू तो छभस्थ है तो वो जो कहते है वह सही है ऐसा कैसे मान सकते है? तो पूज्यश्री ने इसका निराकरण करते हुए फरमाया की यदि गुरू छभस्थ है तो हम महान छभस्थ है। गुरू के प्रत्येक वचन को तहत्ति करके उसे स्वीकार करना ही शिष्य का कत्र्तव्य है। गुरू समर्पण की जब-जब बात आती है तब एकलव्य का अद्भुत गुरू समर्पण सहजता से याद आ ही जाता है क्योंकि उनका समर्पण पर्वत की टोच समान अत्यंत अटल और श्रद्धा से भरपूर था। कु अठारह-अठारह देशों में राज्य करने वाले कुमारपाल महाराजा भी गुरू समर्पण के कारण ही इतने अच्छे से अपना कत्र्तव्य निभा पाये। पूज्य गुरूदेव कहते है कि आज के शुभ अवसर पे अपने जीवन के सर्वप्रथम गुरू ऐसे महान उपकारी परमोपकारी, असीमोपकारी ऐसे माता-पिता को भाव से वंदन, तत्पश्चात् विद्यालय के अध्यापकों को, व्यवहारिक शिक्षण प्रदान करने वाले शिक्षकों को भाव से वंदन करना, जीवन के कोई भी क्षेत्र में जिसने भी कुछ सीखाया हो ऐसे उपकारियों को भाव से वंदन करना तथा अनादि काल से भर अज्ञान रूपी अंधकार को दूर किया हो जैसे गुरू भगवंत को अपने श्वासोश्वास में वंदना। गुरूजनों के प्रति नम्रता-समर्पण भाव से आत्मा को महान स्थान पे ले जाया सकता है। बस इतना अवश्य ध्यान रखें कि अपने गुरू को अप्रीति हो वैसा वर्तन-व्यवहार तथा वचन का उपयोग जानते अजानते भी नहीं करना। गुरू तत्व की अद्भुत सेवा कर परम कृपा मिलाकर परम गति को प्राप्त करें।
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