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अहमदाबाद। जीवन में कुछ भी हासिल करने के लिए किसी की प्रेरणा और मार्गदर्शन की अत्यंत आवश्यकता होती है। विद्यार्थी को शिक्षक के मार्गदर्शन से शिक्षण क्षेत्र में आगे बढ़ता है, व्यापारी अपने सलाहकार के मार्गदर्शन से व्यापार के क्षेत्र में आगे बढ़ता है, ठीक इसी तरह परमात्मा के मार्ग पे आगे बढऩे महात्माओं का तथा प्रभु के वचन रूपी आगमों का महान मार्गदर्शन अनिवार्य है।
सर्वतोमुखी प्रतिभा संपन्न, गीतार्थ गच्छाधिपति पू.पू.आ.देव राजयश सूरीश्वरजी म.सा. ने उपस्थित धर्मानुरागी श्रावकों को संबोधित करते हुए फरमाया कि यदि आपको दिव्य आनंद की अनुभूति करनी हो तो परमात्मा के वचन श्रवण करें। जिनको जिनवाणी श्रवण की महान उत्कंण जागृत होती है ऐसे श्रवण और श्रावक गण चलता था। उसमें कभी कोई प्रिय स्वजन का पत्र आया हो जिसमें प्रीति और स्नेहभरी बातें हो तो आनंद होता है। वैसे ही यदि कोई गुरू भगवंतों का पत्र आया हो तो भी आनंद होता है कि गुरूदेव ने हमे याद किया। वैसे ही कितने ही प्रीति और स्नेह से गणधर भगवंतों ने द्वादशांगी की रचना की और वे ही शब्द अपने को प्राप्त हुए तो क्या उसका आनंद भी अपार ही होना चाहिए।
शास्त्रकार भगवंत फरमाते है कि जो प्रतिक्षण सरल रहता है वह कुछ नहीं खोता, बस प्रत्येक कार्य दंभ रहित करना अनिवार्य है। पूज्यश्री ने फरमाया कि स्वर और व्यंजन के बोलने में तकलीफ होती है। यह वाक्य बोलने जो अत्यंत कठिनाई होती है लेकिन कदाग्रह रखकर अपनी भूल समझते स्वीकार नहीं करते तो यावत् मिथ्यात्व को स्पर्श कर सकते है। बस सर्वप्रथम यह ज्ञात होना चाहिये कि मेरी भूल है फिर उसे स्वीकार करना और शक्य प्रयत्न से उसे सुधारना। जैसे शरीर में उत्पन्न होते हुए कोई भी, रोग के लिए दवाई करना हो तो सर्वप्रथम रोग है-ऐसा निश्चित करो। वैसे ही अपने दोषों को समझकर उन्हें दूर करना है।
इसी संदर्भ में शास्त्रओं में महान आचार्य चंडरुद्राचार्य की बात आती है। चंडरुद्राचार्य का पुण्योदय जबरदस्त था। जिसके प्रभाव से उन्हें बहुत शिष्य हुये किंतु उन्हें गुस्सा बहुत आता है। उन्हें अपना यह दोष समझ आ गया था। उन्होंने सरलता से अपने दोष को स्वीकार कर लिया और देखा कि मेरे शिष्य चाहे सही करे या गलत मुझे गुस्सा ही आता है। अत: उन्होंने अपने दोष को दूर करने के लिए सबसे अलग बैठने का निश्चय किया। शास्त्रकार भगवंत फरमाते है कि आगमन सूत्र के वांचन के लिए विनय और उन्हें पढऩे के बाद सरलता आनी चाहिए। सूत्र पढ़ते समय शिष्य के मन के विचार कैसे होने चाहिए उसका वर्णनकरते हुए शस्यंभव सू.म.सा दशवैकालिक सूत्र में फरमाते है-जेण बंधं वह घोरं परिआवं च दारुणं। सिक्खमाणा नियच्छान्ति, जुत्ता ते ललिइन्दिया।।
अर्थात् पूर्वकाल में गृहस्थ इस लोक में अपने जीवन निर्वाह, अन्न पानादि के उपभोग के लिए शिल् पकला, युद्धकला आदि कलाचार्य गुरू के पास सीखने जाते। राजकुमार जैसे कोमल देह को धारण करने वाले भी कला सीखने हेतु अपने कलाचार्य गुरू के घोर वध बंधन को और भयंकर परिताप को सहन करते और उनकी सदैव पूजा-सत्कार नमस्कार करते है और संतुष्ट होकर उनकी आज्ञा का पालन करते तो फिर जिनको परमात्मा प्रणित श्रुतज्ञान पढऩे की अभिलाषा हो तथा मोक्ष की कामना वाले हो तो उनको आचार्य भगवंत-गुरू भगवंत की सेवा विनय-सत्कार करना ही चाहिए।
कई लोग ऐसा कहते है कि गुरूदेव सूत्र कंठस्थ तो करने है लेकिन याद नहीं रहता। पूज्यश्री ने इस प्रश्न का जवाब देते हुए फरमाया कि अपने मन में जिनके लिए तीव्र अनुराग-प्रेम-स्नेह होता है तो उनकी कही बातें, उनके द्वारा बताये गए कार्य आदि सहजता से याद रह जाते है। वैसे ही आगम सूत्रों के प्रति, परमात्मा के वचनों के प्रति प्रेम-स्नेह जागृत हो जाये तो अवश्य याद रहेगा। बस परमात्मा बनने के लिए परमात्मा के वचनों का मार्गदर्शन लेकर आगे बढ़े।