अहमदाबाद। अहिंसा का श्रेष्ठ स्थान यानि परमात्मा का देशना स्थल समवसरण। ऐसे श्रेष्ठ स्थान का अहिंसामय प्रेममय दृश्य अपने ह्रदय को प्रेम और करुणा से भर देता है। वाद्म-बकरी, सर्प-नौलिया, चूहा-बिल्ली जैसे पशु में भी तीर्थंकर परमात्मा के सानिध्य में हिंसक परिणाम नहीं होते। ऐसे जाति वैरी प्राणी एक साथ एक ही परिसर में बैठने पर भी परमात्मा के प्रेम से करुणा से प्रभावित होकर एक-दूसरे के पर हमला नहीं करते।
परम तारक, परार्थ रसिक परमात्मा के प्रेममयी स्वरूप को समझाते हुए प्रभावक प्रवचनकर, गीतार्थ गच्छाधिपति प.पू.आ.देव राजयश सूरीश्वरजी म.सा. ने बताया कि प्रेम से जीवन को एक नई दिशा मिलती है, प्रेम से जीवन में निखार आता है, प्रेम से जीवन में अद्भुत-अनुपम-अनन्य आनंद की अनुभूति होती है। प्रेम से तो संपूर्ण विश्व को ही नहीं ब्रह्मांड के समस्त जीवों का ह्रदय जीना जा सकताहै। इसी संदर्भ में कबीर जी के जीवन का एक प्रसंग पूज्यश्री ने फरमाया एक बार किसी व्याकरण-संस्कृत-प्राकृत के विद्वान ने कबीरजी को पूछा कि आप तो मेरे जैसे विद्वान पंडित नहीं हो फिर भी आपके आसपास तो मधुमक्खी की तरह लोग मंडराते ही रहते है। इसका क्या कारण है? तब कबीर जी हंसकर बोले-पोथी पढ़ पड़ी जग मुआ, पंडित भया न कोई
ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंडित होई।।
अर्थात् इस दुनिया में कितने ही विद्वान, कितने ही वैज्ञानिक, कितने ही डिग्री होल्डर हो गये लेकिन उन सभी ज्ञान से भी ढाई अक्षर प्रेम के जानकार बड़े विद्वान एवं पंडित है। प्रेम से बोलना-प्रेम से बुलाना, प्रेम से सभी का स्वीकार आवकार एवं सत्कार करना करते तो यावत् मित्थात्व को स्पर्श कर सकते है। बस सर्वप्रथम यह ज्ञान, होना चाहिए कि मेरी भूल है फिर उसे स्वीकार करना और शक्य प्रयत्न से उसे सुधारना। जैसे शरीर में उत्पन्न होते हुए कोई भी, रोग के लिए दवाई करना हो तो सर्वप्रथम रोग है ऐसा निश्चित करो।
इसी संदर्भ में शास्त्रों में महान आचार्य चंडरुद्राचार्य की बात आती है। चंडरुद्राचार्य का पुण्योदय जबरदस्त था। जिसके प्रभाव से उन्हें बहुत शिष्य हुए किंतु उन्हें गुस्सा बहुत आता था। उन्हें अपना यह दोष समझ आ गया था। उन्होंने सरलता से अपने दोष को स्वीकार कर लिया और देखा कि मेरे शिष्य चाहे सही करे या गलत मुझे गुस्ता ही आता है। अत: उन्होंने अपने दोष को दूर करने के लिए सबसे अलग बैठने का निश्चय किया। शास्त्रकार भगवंत फरमाते है कि आगम सूत्र के वांचन के लिए विनय और उन्हें पढऩे के बादसरलता आनी चाहिए। सूत्र पढ़ते समय शिष्य के मन के विचार कैसे होने चाहिए उसका वर्णन करते हुए शय्यंभव सू.म.सा. दशवैकालिक सूत्र में फरमाते है-
जेण बंध वहं गोरं परिआवं च दारुणं।
सिक्यमाणा नियच्छान्ति, जुत्ता वे ललिइन्दिया।।
अर्थात् पूर्वकाल में गृहस्थ इस लोक में अपने जीवन निर्वाह, अन्न पानादि के उपभोग के लिये शिल्पकला, युद्धकला आदि कलाचार्य गुरू के पास सीखने जाते। राजकुमार जैसे कोमल देह को धारण करने वाले भी कला सीखने हेतु अपने कलाचार्य गुरू के घोर वध बंधन को और भयंकर परिताप को सहन करते और उनकी सदैव पूजा-सत्कार नमस्कार करते है और संतुष्ट होकर उनकी आज्ञा का पालन करते। तो फिर जिनको परमात्मा प्रणित श्रुतज्ञान पढऩे की अभिलाषा हो तथा मोक्ष की कामना वाले हो तो उनको आचार्य भगवंत-गुरू भगवंत की सेवा विनय-सत्कार करना ही चाहिए।इस दृष्टांत से पूज्य गुरूदेव ने समस्त सभागणों को समझाया कि जिनशासन में शास्त्रों में और आगमों में सब कुछ बताया है। सभी की एक ही बात है सद्भाव अवश्य रखना ही चाहिए। परंतु शास्त्रों के प्रति और आगमों के प्रति सद्भाव रखने का अर्थ यह नहीं कि हम उनके नाम पर झगड़े कर बैठे। जीवन में विवेक और औचित्य अवश्यमेश बनाये रखें। ऐसे आदर्शमय जीवन बनाने के लिए सहन करना आना चाहिए। क्योंकि जो सहन करता है वहीं वहन करता है अर्थात् आत्मा से परमात्मा बन सकते है।