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गिरीश्वर मिश्र
समुद्र मंथन से निकले कालकूट विष से प्राणियों को बचाने के लिए भगवान शिव ने उसे अपने कंठ में उतार लिया था। शिव के प्रिय महीने सावन में उनकी उपासना अभिषेक के साथ उनके गुणों को भी अपने भीतर आत्मसात करने का प्रयास करना चाहिए।
 सावन लगने के साथ भारत का उत्सवधर्मी रूप थोड़ा और संवर गया। बेशक कोरोना की वजह से पिछले वर्ष की तरह इस बार भी कांवड़ यात्रा की अनुमति नहीं है, लेकिन इन दिनों भोले शिव के भक्तों के रोम-रोम से 'बोल-बमÓ की ध्वनि निकलती प्रतीत हो रही है। वातावरण शिवमय हो गया है। सावन की रसवंती फुहार में भीगते तन और तन से अधिक मन को देखकर सहज ही अनुमान हो जाता है कि भस्मी श्रृंगार वाले भूत भावन आदि योगी शिव का प्रिय मास सावन आ गया। वातावरण में रुद्राभिषेक के मंत्रों की गूंज तो कहीं जगज्जननी के विराट ऐश्र्वर्य के साथ सजी फक्कड़ भोले बाबा की झांकी। हर-हर बम-बम की फक्कड़ता ऐसी कि बड़ी से बड़ी सिद्धियां और विभूतियां उसके सम्मुख नतमस्तक हो जाएं। शिवलिंग पर चढ़े बिल्वपत्र और मंदार पुष्प पर तमाम ऐश्र्वर्य न्योछावर। यह सब होता है शिव के प्रिय मास श्रावण में।
भगवान शिव को सावन का महीना प्रिय है। क्यों? शिव तो साक्षात विश्र्व-विग्रह हैं। काल शिव के अधीन है। शिव काल से मुक्त चिदानंद हैं- शिवस्य तु वशे कालो,न कार्य वंशे शिव:। भ:,भुव: और स्व: अर्थात भूमि, अंतरिक्ष और द्युलोक में सर्वत्र शिव ही व्याप्त हैं। शेते तिष्ठति सर्व जगत् यस्मिन् स: शिव: शंभु: विकाररहितÓ यानी जिसमें सारा जगत शयन करता हो, जो विकार रहित है, वह शिव है। अथवा जो अमंगल का नाश करते हैं, वही सुखमय मंगलमय भगवान शिव हैं। आशुतोष शिव त्रिविध तापों का शमन करने वाले हैं और इन्हीं से समस्त विद्याएं और कलाएं उद्भूत हैं। सारा विश्र्व शिव से उत्पन्न है, शिव में स्थित है और शिव में ही विलीन होता है। 
शिव के इस गूढ़ और सूक्ष्म दार्शनिक, आध्यात्मिक पक्ष से हटकर हम भौतिक या सगुण रूप पर विचार करते हैं तो कुछ तथ्य सामने आते हैं कि क्यों सावन का महीना शिव के साथ अभिन्न हो गया। एक प्रचलित आख्यान मिलता है कि देवताओं और दानवों द्वारा समुद्र मंथन में विषैला कालकूट विष भी निकला था, जिसकी ज्वाला से पूरी सृष्टि को खतरा उत्पन्न हो गया था। जलचर, नभचर, पृथ्वी पर सांस लेने वाले सभी प्राणियों के अस्तित्व पर संकट आ गया था। शस्य श्यामला धरती की उर्वरता नष्ट होने के कगार पर थी। कालकूट की ज्वाला से विश्र्व के प्राणी झुलसने लगे।
 सृष्टि की रक्षा के लिए देव, दानव सभी चिंतित हो उठे। उन्होंने भगवान शिव से सृष्टि रक्षा के लिए गुहार की। शिव ने एक ही आचमन में लोकसंहारी विष को अपने गले में धारण कर लिया। विष के प्रभाव से उनका कंठ नीले रंग का हो गया और वह नीलकंठ बन देवों के देव महादेव बन गए। पुराण कहते हैं कि वह समय सावन का था। शिव के ताप को शांत करने के लिए उस समय देवताओं ने जलाभिषेक किया था और तब से सावन मास में शिवालयों में जलाभिषेक के द्वारा शिव के उस लोकमंगलकारी रूप का स्मरण आज भी करते हैं उनके भक्त। वे शिव की कृपा की वर्षा में भीगना चाहते हैं।  
सावधान करते शिव : इसका दूसरा पक्ष यह भी लिया जा सकता है कि सृष्टि में प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन से सृष्टि के सुरक्षित रह पाने में संशय होना स्वाभाविक ही है। समुद्र जीवों के लिए एक बड़ा प्राकृतिक संसाधन है और उस संसाधन का देव, दानव दोनों प्रवृत्तियों के लोगों द्वारा दोहन धरती की उर्वरा शक्ति को नष्ट करने के साथ-साथ प्राणी मात्र के अस्तित्व के लिए भी खतरा पैदा कर सकता है। शिव उस विष को अपने कंठ में धारण कर सभी को सावधान रहने का संदेश देते हैं।
 सावन शिव के मंगलकारी स्वरूप के साथ भी जुड़ता है। सावन में मेघ इच्छाचारी होते हैं। वे बिना कोई भेदभाव किए कहीं भी बरस सकते हैं। धरती को शस्य श्यामला कर सकते हैं। लोगों की प्यास बुझा सकते हैं। शिव की कृपा भी सावन के मेघ की तरह ही सृष्टि के प्राणियों पर बरसती है।
जप-तप और योग की ऋतु है वर्षा : सावन की एक और कथा इसे शिव के साथ जोड़ती है। सनतकुमारों के प्रसंग से ज्ञात होता है कि भगवती पार्वती ने अपनी सुदीर्घ तपस्या के पश्चात इसी वर्षा ऋतु में शिव को पति के रूप में प्राप्त किया था। सनातन धर्म में तप का सौंदर्य सर्वोच्च सौंदर्य माना जाता है। भगवती पार्वती का भी नैसर्गिक सौंदर्य जब तप की आंच में निखरता है, तब वह अपने प्रिय आशुतोष शिव को पति रूप में प्राप्त करती हैं। इसलिए भी जप-तप और योग की ऋतु है वर्षा। 
सावन योग का महीना : एक कथा यह भी मिलती है कि आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक के लिए जगत के पालनकर्ता श्रीहरि विष्णु योग निद्रा में होते हैं, इसलिए संहार के साथ-साथ जगत के पालन का भी संपूर्ण दायित्व शिव को संभालना पड़ता है। ऋतुओं से समृद्ध भारत में सावन से शिव का नाता वैज्ञानिक और आध्यात्मिक दृष्टि से भी समझा जा सकता है। प्रकृति में मुख्य रूप से जलवायु के दो स्वभाव हैं- एक ठंडा, दूसरा गरम। इन दोनों स्वभावों के अंतर्गत ही विभिन्न ऋतुएं या मास आते हैं। शिव आदियोगी हैं। योग का अर्थ होता है दो पदार्थो को जोडऩा या संयोग। भारत में सावन एक ऐसा महीना है, जिसके पहले प्रकृति का स्वभाव गरम रहता है और बाद में ठंडा मौसम आने वाला होता है यानी धरती पर ठंडे और गरम जैसे प्राकृतिक स्वरूपों को जोडऩे वाला महीना सावन और उस योग के समय की प्रियता को धारण करने वाले आदियोगी शिव।  सावन योग का महीना बन जाता है और इस प्रकार आदियोगी शिव से भी आंतरिक रूप से जुडऩे का एक पवित्र महीना।

उत्सव का मास सावन

कजली तृतीया, स्वर्ण गौरी पूजा, कामिका एकादशी, दूर्वा गणपति, नाग पंचमी, रक्षाबंधन, श्रावणी, ऋषि तर्पण, आदि पर्वो को अपने में समेटे यह सावन उत्सव का मास बन जाता है। यह ध्यान देने की बात है कि ये सभी उत्सव उन्माद या उल्लास के कोलाहल से परे शांति और संतुलन के पर्व हैं। इन उत्सवों का जप, तप, योग, ध्यान और शांति स्थापना में अपना एक महत्वपूर्ण योगदान है। भगवान शिव प्रेम और शांति के अथाह सागर भी हैं। उनके इस पावन मास में सभी प्राणी अपने स्वाभाविक वैर भाव को भुलाकर संसार के अन्य सभी जीवों के साथ पूर्ण शांतिमय जीवन जी सकते हैं। शिव आनंदस्वरूप हैं और जो भी उनसे जुड़ता है, वह भी आनंद रूप हो जाता है।