अहमदाबाद। अनंत उपकारी शास्त्रकार भगवंतों ने जीवन जीने की शैली की अत्यंत सुंदर रुपरेखा आगम ग्रंथों में गूंथी है। जीवन की सच्ची-सीधी और सादी बात जो बताये वो आगम है, शास्त्र है। उन्हीं अनमोल आगम ग्रंथों के सार पर पूज्यश्री प्रवचन फरमाया रहे है। संसार का भवभ्रमण अनादिकाल से चला आ रहा है वैसे ही इच्छा करने की क्रिया भी निरंतर अनादि काल से चलता ही जा रहा है।
श्री पाश्र्व पद्यावती लब्ध प्रासाद, गीतार्थ गच्छाधिपति प.पू.आ.देव राजयशसूरीश्वरजी म.सा. ने उपस्थित धर्मानुरागी आराधकों को संबोधित करते हुए फरमाया कि इच्छा एक ऐसा भयंकर रोग है कि एक को दूर करो तो 11 आकर खड़े रहते हैं। एक के बाद एक चालू ही रहती है। अपने को ऐसा लगता है कि एक इच्छा पूर्ण हो जाये बस फिर कुछ नहीं चाहिए लेकिन वास्तविकता इससे कुछ विपरीत ही होती है। एक इच्छा की पूर्ति हो जाये फिर दूसरी इच्छा तैयार ही रहती है। अत: शास्त्रकार भगवंतों ने इच्छा को तृष्णा कहा है। इच्छा पूर्ण करने की आदत यानि दु:खी होने की आदत।
एक भाई पूज्य गुरूदेव के पास वासक्षेप डलाने और आशीर्वाद लेने आये और बोले कि हे गुरूदेव मेरे बेटे की शादी तो हो गई है। आठ वर्ष हो गये लेकिन उसे अभी तक संतान नहीं है आप ऐसे आशीर्वाद दीजिये कि उसे जल्द से जल्द संतान की प्राप्ति हो जाये बस और कुछ नहीं चाहिए। उसके बाद में निवृत्त हो जाऊं। गुरूदेव ने तो सहज भाव से ही वासक्षेप डाला लेकिन उनका पुण्योदय था कि कुछ समय में उनके घर एक नन्हें से बालक का आगमन हुआ वह भाई फिर से पूज्यश्री के पास आये और बोलने लगे है गुरूदेव आपके आशीर्वाद के प्रभाव से मेरे पुत्र को संतान की प्राप्ति लो हो गई है लेकिन डॉक्टरों का कहना है कि उसे ब्लड कैंसर है। बस ऐसे आशीर्वाद दीजिये कि उसका पुत्र रोग मुक्त हो जाये इसके अलावा और कुछ नहीं चाहिए। इस भाई की तरह अपने भी एक के बाद एक इच्छायें करते जाते है और साथ में कहते जाते है कि बस यह एक इच्छा पूर्ण हो जाये फिर कुछ नहीं।
किंतु इच्छा की गाड़ी का कोई समापन नहीं है। अत: प्रभुवीर ने भी अपनी अंतिम देशना में फरमाया है कि इच्छा आगम समा अणंतया अर्थात् इच्छा आकाश के समान अनंत है। जैसे आकाश का कोई अंत नहीं वैसे ही इच्छाओं का भी कोई अंत नहीं है। सबसे दयनीय बात यह है कि इच्छा पूर्ति के बाद भी आनंद या संतोष कायम के लिए नहीं रहता। इससे ऐसा लगता है जैसे मनुष्य ने खुद को दु:खी करने का निश्चय किया हो। किसी की कोई अच्छी चीज देखकर, उनकी खूबियों को देखकर वैसा बनने की इच्छा, वही चीज पाने की इच्छा और नहीं प्राप्त होने पर उदासी, मायूसी और ईष्र्या के घेरे में फंस जाते है। इसलिए शास्त्रकार भगवंत पूछते है कि इच्छा करना वो मगरुरी है या मजबूरी? इच्छा करना मजबूरी नहीं है बकि मोहनीय कर्म का भयंकर उद्य है। किसी चिंतक ने लिखा कि जब इच्छाओं का अवरोध किया जाये तो वह क्रोध में रूपांतरित हो जाता है।
इच्छाओं को तीन तरह से हल किया जा सकता है अर्थात् हैंडल किया जा सकता है:- इच्छाओं का सम्यक् संचालन करने से राहत मिलती है।, इच्छाओं को घटाने से निश्चिंतता मिलती है। इच्छाओं को खत्म करने से परमानंत की प्राप्ति होती है। इच्छाओं से केवल दु:ख की प्राप्ति होती है। इच्छा तो अनर्थ का मूल है। ऐसी इच्छा को हो सके उतना घटाने की कोशिश करना जिससे जीवन में थोड़ी बहुत निश्चिंतता प्राप्त हो सके। में भी कहा गया है अविक्खे अणाणंदे अर्थात् अपेक्षाओं से केवल दु:ख हो होता है। वैसी दु)खों की जननी इच्छा का त्याग कर शीघ्र आत्मा से फरमाया बनें।
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